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________________ ५६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अनन्त काल से परिभ्रमण पूर्व में कह चुके हैं:- 'वह दरिद्री भीख माँगते हुये अदृष्टमूलपर्यन्त नगर के छोटे-बड़े घरों में, भिन्न-भिन्न मोहल्लों और गलियों में बिना थके भटकता रहता।' इस जीव की स्थिति भी इसके समान ही है। इस जीव ने भी अनादि काल से अनन्त पुद्गल परावर्त किये हैं अर्थात् अनन्त पुद्गल परावर्त जितना समय यह जीन संसार में परिभ्रमण करता रहा है। पुनश्च 'दुःखग्रस्त महादुर्भागी को यों भटकते हुये उसे कितना समय बीत गया, इसका भी उसे ध्यान नहीं रहा।' इस की संगति इस प्रकार है:-- यह जीव कितने काल तक भव भ्रमण द्वारा संसार में रखड़ता रहा, इस काल का निर्णय करना अशक्य है; क्योंकि जिस काल का प्रारम्भ ही न हो, अनादि हो उसकी गणना करना (सीमा में बांधना) न केवल अशक्य है अपितु असम्भव भी है। ___इस प्रकार यह मेरा पामर जीव इस संसार रूपी नगर के उदर में झूठे संकल्प-विकल्प, कुतर्क, कुतीथिक-दर्शन रूप दुर्दान्त बाल-समह से तत्त्वाभिमुख सुन्दर शरीर पर मिथ्यात्व रूप मार खाता हुअा महामोह आदि अनेक रोगों से ग्रस्त शरीर वाला हो गया है और इन निकृष्ट व्याधियों के अधीन होकर, नरकादि स्थानों में अत्यन्त पीड़ाएँ सहन करने से इसका स्व-स्वरूप भ्रष्ट हो गया है। जिनका चित्त विवेक बुद्धि से निर्मल हो गया है ऐसे सज्जनों की दृष्टि में यह जीव कृपा का पात्र बनता है। फिर भी यह जीव आगे-पीछे के विचारों से शून्य और व्याकुलित चित्त वाला होने से तत्त्वबोध (सम्यक-ज्ञान) से बहुत दूर रहता है। इन सब कारणों से प्रायः समस्त प्राणियों की तुलना में यह जीव जघन्यतम (अधम) है। अधम मनोवृत्ति के कारण कुत्सित भोजन के समान धन, विषय, स्त्री आदि प्राप्त करने की आशा से दुराशा रूपी पाश में जकड़ा रहता है । कदाचित् उसकी इच्छाओं की नाममात्र की भी पूर्ति हो जाती है तो वह किंचित् तृप्ति (सन्तोष) का अनुभव करता है, किन्तु यह तृप्ति स्थिर नहीं रहती। वह सदा असन्तुष्ट रहता है। उसे अभिलाषित वस्तुएँ किस प्रकार प्राप्त हों, किस प्रकार वे बढ़ती रहें और किस प्रकार उनको सुरक्षित रखू, इन्हीं विचारों में वह सर्वदा डूबा रहता है। इन विचारों के फलस्वरूप वह गुरुतर, निबिड़ और दुर्दम्य आठ प्रकार के कर्म-संचय रूप अपथ्यरूपी नाश्ता-भोजन (संबलबाँध लेता है। इस अपथ्य भोजन का सेवन करने से इस जोव को राग आदि व्याधियाँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं और वह इन व्याधियों को भोगता है। विपरीत बुद्धि के कारण इन बोमारियों की जड़ क्या है ? इसकी उपेक्षा कर, सर्वदा कुपथ्य भोजन का अधिक मात्रा में सेवन करता है, किन्तु सच्चारित्र रूप अतिस्वादिष्ट परमान्न (खीर) को चखना भी वह पसन्द नहीं करता। फलस्वरूप यह जीव 'अरघट्टघटीयन्त्र' के न्यायानुसार अनन्त पुदगल परावर्त पर्यन्त समस्त योनियों (उत्पत्ति स्थानों) में घूमता रहता है, भटकता रहता है। * पृष्ठ ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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