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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध ५५ भक्त भोजन की बात को भूल जाता है, उसे याद भी नहीं करता, केवल नई-नई भोग सामग्री प्राप्त करने की अभिलाषा में सूखकर कांटा होता रहता है। उदरशूल पूर्व में कह चुके हैं किः---'बेचारा निष्पुण्यक उस कदन्न को बड़ी लोलपता से खाता है। उस झूठन के पचते-पचते उसके शरीर में वात- विचिका उठ खड़ी होती और यह पीड़ा उसे अत्यन्त दुःखित करती।' इसका जीव के साथ सम्बन्ध इस प्रकार योजित करें :--रागादि में लुब्ध यह जीव जब झूठन के समान धन, विषय और स्त्री को प्राप्त कर उसका प्रासक्तिपूर्वक उपभोग करता है तब उसे कर्म-संचय रूप अजीर्ण होता है। कर्मों के उदय में आने पर जब वह उनको पचाता रहता है (निर्जरा करता है) तब नरक, तियंञ्च, मनष्य और देवगति में भटकने रूप उदरशूल पैदा होता है। इस प्रकार संचित कर्म इस जीव को अत्यधिक पीड़ित और त्रस्त करते हैं। पुनश्च जैसा कि पूर्व में कह चुके हैं:--'वह भोजन उसके लिये असाध्य रोगों का कारण बनता और शरीर में पहले से स्थित रोगों को बढ़ाने में सहायभूत बनता' वैसे ही यह जीव जब रागादि से ग्रस्त होकर विषयादि का उपभोग करता है तब उस आसक्ति के कारण पूर्ववणित महामोह के लक्षण वाली अनेक नवीन व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं और वह पहले जिन व्याधियों से पीड़ित था उनमें अतिशय वृद्धि होती है। क्योंकि कर्म-संचय ही कुभोजन “है। इससे नये कर्मों का बन्धन होता है और पूर्व कर्मों को स्थिति, अनुभाग (रस) भी अधिक तीव्र बनते हैं। सुस्वाद से विहीन पूर्व में कहा जा चुका है :--'इस वास्तविकता की उपेक्षा करते हुये निष्पुण्यक उसी भोजन को अच्छा मानता और उससे सुन्दर भोजन की तरफ दृष्टिपात भी नहीं करता । सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन चखने का कभी उसे स्वप्न में भी अवसर प्राप्त नहीं हुआ।' यह कथन इस जीव के साथ पूर्णतया घटित होता है । इस जीव की चित्तवृत्ति महामोह से कुण्ठित (ग्रस्त) होने से वह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाले धन, विषय, स्त्री आदि को सुखदायक और आत्महितकारी मानता है। स्वाधीन (जब इच्छा हो तब प्राप्त कर सके) अतिशय आनन्द और तृप्तिदायक महाकल्याणकारी पारमार्थिक चारित्ररूपी खीर का भोजन जब प्राप्त होता है तब यह बेचार। जोव उसे प्राप्त नहीं कर पाता; क्योंकि महामोहरूपी निद्रा से कार्याकाय को बताने वाले उसके विवेक रूपो नेत्र खुलते ही नहीं हैं। अनादि काल से परिभ्रमण करते हुये इस जीव को पहले कदाचित् यह महाकल्यःणक भोजन प्राप्त हो गया होता तो समस्त क्वेश-समूह का नाश करने वाला मोक्ष उसे कभी का मिल गया होता तथा वह इतने समय तक संसार में भटकता भी नहीं। यह मेरा जीव तो अभी भी संसार में भटक रहा है, इसमे यह प्रमाणित है कि मेरे इस जीव ने सच्चारित्र रूपी सुभोजन कभी प्राप्त ही नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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