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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इसका भी उसे भान नहीं रहता। कदाचित् किसी कारण से उसका पत्नी से वियोग हो जाये अथवा वह मर जाये तब वह रोता है, शोक करता है अथवा मर भी जाता है। यदि उसकी स्त्री दुराचारिणी होने से अन्य पुरुषों के साथ सम्पर्क रखती हो अथवा कोई पुरुष बलात्कार पूर्वक उसका हरण कर ले जाये तो यह मोहान्ध जीव जीवन पर्यन्त मन ही मन में जलता रहता है या अत्यधिक दुःख से प्राण भी त्याग कर देता है। इस प्रकार एक-एक वस्तु के प्रतिबन्धन में आसक्त यह जीव अनेक प्रकार के दुःखों को सहता है तथापि विपरीत बुद्धि के कारण उन वस्तओं के रक्षण में तत्पर बना रहता है और मेरी किसी वस्तु का कोई हरण न कर ले इस शंका से सर्वदा उद्वेलित रहता है। तृप्ति का अभाव पर्व में निष्पूण्यक के प्रसंग में कह चुके हैं:--'उस थोड़े से झूठन से उस बेचारे की तृप्ति तो क्या होती, उसकी भूख और अधिक प्रज्वलित हो जाती।' उसी प्रकार इस जीव को झूठन के समान अर्थ, स्त्री और विषयभोगों की इच्छानसार प्राप्ति और उपभोग करने पर भी उसकी इच्छाओं का कभी शमन नहीं होता, प्रत्युत उसकी तृष्णाएँ निरन्तर बलवती होकर बढ़ती रहती हैं। जैसे उसे यदि कदाचित् सौ रुपये प्राप्त हो जाये तो वह हजार की कामना करता है, हजार प्राप्त हो जाये तो लाख की अभिलाषा करता है, लाख प्राप्त हो जाये तो करोडपति बनने की इच्छा करता है, कोट्याधिपति हो जाये तो राज्य प्राप्ति की कामना करता है, राजा बन जाता है तो चक्रवर्ती बनने की मृगतृष्णा जग जाती है, यदि कदाचित चक्रवर्ती भी बन जाता है तो देवत्व की आकांक्षा करता है, देवत्व भी प्राप्त हो जाये तो इन्द्रत्व की प्रार्थना करता है। इन्द्र भी बन जाये तो सौधर्मादि देवलोकों से ऊपर उत्तरोत्तर अनुत्तरकल्प का अधिपति बनने का मनोरथ करता है। इस प्रकार इस जोव की भी मनोरथों की संकल्पमाला मगतृष्णा के समान निरन्तर बढ़ती ही रहती है, वह कभी समाप्त नहीं होती। जैसे भयंकर ग्रीष्म ऋतु में जिसका शरीर चारों ओर से झुलस रहा हो, जो अत्यधिक प्यास से बेहाल होकर मछित हो गया हो ऐसा कोई बटाउ (पथिक) अचेतनावस्था में स्वप्न में जलतरंगों से सुशोभित सरोवरों से कितना भी पानी पी ले तब भी उसकी प्यास रंचमात्र भी बुझती नहीं; वैसे ही इस जीव की अर्थ, स्त्री और विषयभोगों की प्यास कदापि शान्त नहीं होती। अनादि संसार में रखड़ते हुये इस जीव ने अनन्तबार देवभव प्राप्त किया, विषय-भोगों की सामग्रो का छककर उपभोग किया, महामूल्यवान संख्यातीत रत्न प्राप्त किये, रति के विभ्रम को भो खण्डत करने वाली विलासिनी ललनाओं के साथ विलास किया ओर तीनों लोकों में अतिशय मनोरम मानने योग्य अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ को, ॐ तथापि यह जीव जैसे प्रबल भूख लगने से पेट कमर को लग जाता है वैसे हो वह पूर्व में भुक्त विषय भोग अथवा * पृष्ठ ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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