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________________ ५० उपमिति-भव-प्रपंच कथा के मुख के समान युद्धभूमि में चला जाता है। तलवार, भाला आदि के आघात सहने के लिये स्वयं का सीना (छाती) आगे कर देता है। धन की कामना वाला यह दरिद्री जीव इस प्रकार के दुःख भोग कर भी कामनाएं पूर्ण होने के पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त करता है। खेती यह जीव किसी समय खेती करता है तब रात-दिन खेत में खपा रहता है। हल चलाता है, जंगल में रहकर पशुओं की जिन्दगी का अनुभव करता है, अर्थात् पशु जैसा जीवन बिताता है। अनेक प्रकार के छोटे-मोटे जीवों का नाश करता है। वर्षा के अभाव में संताप करता है और बीजनाश होने पर दुःखी होता है। व्यापार पुनः यह जीव कदाचित् व्यापार करता है तब उसमें वह झूठ बोलता है, विश्वासु और भोले लोगों को ठगता है, परदेश जाता है, सर्दी-गर्मी को सहता है, भूखा रहता है, प्यास को भी भूल जाता है, अनेक प्रकार के त्रास और परिश्रम से होने वाले सैकड़ों दुःखों को भेलता है, समुद्री यात्रा करता है, जहाज डूब जाने या भग्न हो जाने पर मौत की स्थिति का आलिंगन करता है, जलचरों का भोजन बन जाता है। कदाचित् पर्वतों की गुफाओ में घूमता है, राक्षसों की गुफाओं में जाता है, रसकूपिका (लोहे को भी स्वर्ण बनाने वाला रस) की खोज करता है, खोजते समय उसको रसकपिका के रक्षक अपना भक्ष्य भी बना लेते हैं। किसी समय दुःसाहस कर बैठता है, भयंकर रात्रि में श्मशान में जाता है, मृतकों को ढोता है, उनका मांस बेचता है, विकराल वेताल की साधना करता है; साधना में त्रुटि रहने पर वह वेताल कुपित होकर उसे मार भी देता है । कदाचित् खनिज विद्या (मिनरोलोजी) का अभ्यास करता है, भूमि में रहे हुये धन-भण्डारों के लक्षणों का निरीक्षण करता है, किसी स्थान पर धन-निकल जाये तो उसे देखकर प्रसन्न होता है, उस धन को ग्रहण करने के लिये रात्रि में भूतों को बलि देता है, निधान-पात्र को निकालता है किन्तु उस पात्र में धन के स्थान पर कोयले देखकर अत्यन्त दुःखी होता है। किसी समय धातूवाद (मेटली) का अनुशीलन करता है। धातुवाद के जानकार (विज्ञ) की सेवा-शुश्रूषा करता है, उसके आदेशों का पालन करता है, अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों को इकट्ठा करता है, धातुमृत्तिका (तेजमतूरी) लाता है, पारद (पारा) को समीप लाकर रखता है उस पारे को जलाना, उड़ाना आदि क्रियाओं में अनेक प्रकार के कष्ट उठाता है, उसे रात-दिन धोंकता रहता है, प्रतिक्षण उसे फकता है, पीत और श्वेत रंग की किंचित् भी सिद्धि होते देखकर हर्षवशात फलकर कृप्या हो जाता है। रात-दिन पाशा के लड्ड, खाया करता है। स्वयं के पास थोड़ा-बहुत सचित धन होता है, उसे भी इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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