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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध की सिद्धियों के पीछे फुक देता है और अन्त में किसी भी प्रकार की सफलता न मिलने पर निराश होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। धन की खोज पनः यह प्राणी विषयभोगों को प्राप्त करने की लालसा से धन संग्रह के लिये चोरी करता है, जआ खेलता है, यक्षिणी (देवी-देवताओं) की आराधना करता है, मन्त्रों का जप करता है, ज्योतिष की गणना करता है, निमित्त (शकून) का योग मिलाता हैं, लोगों का हृदय अपनी ओर आकर्षित करता है, ॐ तत्सम्बन्धी समस्त कलाओं का अभ्यास करता है। अधिक क्या कहें ? धन प्राप्ति के लिये ऐसा कोई काम बाकी नहीं रहता जिसे वह न करता हो, ऐसा कोई वचन नहीं जिसे वह नहीं बोलता हो और ऐसा कोई विचार नहीं जिसका वह चिन्तन नहीं करता हो । धन के लिये इधर-उधर फरी-फरी मारता हुआ घूमता-रखड़ता रहता है। इतनी भाग-दौड़ करने पर पूर्वोपाजित पुण्य से शून्य (रहित) होने के कारण इच्छित धन के स्थान पर तिल के छिलकों का तीसरा हिस्सा भी उसे नहीं मिलता। यदि मिलता है तो केवल रात-दिन का मानसिक सन्ताप और रौद्रध्यान से ग्रस्त होने से गरुतर कर्मों का बन्धन और इस बन्धन के गुरुतर बोझ से यह जीव दुर्गति में जाने योग्य स्थितियों की अभिवृद्धिकरता है। वास्तविक भिक्षुपन यदि कदाचित् किंचित् पूर्वोपार्जित पुण्योदय से इस जीव को हजारों या लाखों रुपये अथवा मनोन कल पत्नी अथवा शारीरिक सौन्दर्य अथवा विनीत परिवार अथवा धान्य का भण्डार अथवा कतिपय ग्रामों का स्वामित्व अथवा राज्यादिक प्राप्त हो जाये तो जैसे पूर्वकथित 'निष्पुण्यक दरिद्री को भिक्षा में थोड़ी सी झूठन प्राप्त हो जाने पर वह सन्तुष्ट हो जाता था' वैसे ही यह जीव अहंकार रूपी सन्निपात से ग्रस्त हो जाता है । गर्वोन्मत्त होकर वह किसी की प्रार्थना को भी नहीं सुनता है, दूसरों की ओर दृष्टि भी नहीं उठाता है, गर्दन भी नहीं झुकाता अर्थात अकड़कर चलता है, मधुर वचनों का प्रयोग भी नहीं करता है, बिना कारण ही अाँखें बन्द रखता है और वृद्धजनों को अपमानित करता है। इस प्रकार अत्यन्त इंद्र अभिप्रायों से जिसका मूलस्वरूप नष्ट हो चुका है ऐसा जीव ज्ञान दर्शन चारित्रादि रत्नों से परिपूर्ण परमोच्च भगवत्स्वरूप मुनिपुङ्गवों की दृष्टि में दीनहीन भिखारियों से भी निष्कृष्टतम कैसे प्रतिभासित नहीं होगा ? अर्थात् मनिपु गवों की दृष्टि में पूर्वोक्त क्षुद्र अभिप्रायों वाला और विवेकहीन जोव निकृष्ट ही प्रतीत होता है। भिक्षुक से भी अधम - जब यह जीव पशुयोनि में अथवा नरक में रहता है उस समय इस जीव को दी गई 'भिखारी-दरिद्री' की उपमा का भी यह अतिक्रमण कर देता है, क्योंकि * पृष्ठ ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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