SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध ४६ जीवन की प्रगल्भता तत्त्वमार्ग से अनभिज्ञ यह जीव जब ब्राह्मण, वेश्य, अहीर, और अन्त्यज (नीच जानि) आदि जातियों में उत्पन्न होता है तब उस समय उसकी अभिलाषायें अत्यन्त तुच्छ होने के कारण कदाचित् उसे छोटे-छोटे दो-तीन ग्राम प्राप्त हो जाते हैं तो वह स्वयं को चक्रवर्ती मान बैठता है। एक-अाध खेत का मालिक हो जाता है तो स्वयं को महामण्डलीक राजा मान लेता है। उसे कोई कुलटा स्त्री प्राप्त हो जाये तो वह उसे देवांगना समझ बैठता है। स्वयं की देह के कुछ अंग बेडोल होने पर भी स्वयं को मकरध्वज (कामदेव) समझता है। मातंगों (ढ़ेढ-चमार) के मोहल्ले में रहने वालों के समान अपने परिवार को इन्द्र के परिवार के समान समझता है। कदाचित् उसे तीन-चार सौ या तीन-चार हजार रुपये प्राप्त हो जाये तो स्वयं को कोल्वाधिपति मान लेता है। किसी समय उसके खेत में पाँच या छः द्रोण (३० किलो के लगभग एक द्रोण होता है) अनाज की पैदावार हो जाये तो स्वयं को बड़ा कुबेर मान बैठता है । कदाचित् अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण सुख पूर्वक कर लेता है तो स्वयं को राज्यपालक मान लेता है । कदाचित् उदरपूर्ति निमित्त कोई कामधन्धा मिल जाये तो वह उसे उत्सव मानता है। कदाचित् भिक्षा प्राप्त हो जाये तो जीवन मिल गया हो ऐसा मानता है। किसी समय में राजा अथवा अन्य किसी को शब्दादि इन्द्रिय सुखों को भोगते देखकर उनके सम्बन्ध में वह विचार करता है-- 'अहो ! यह इन्द्र है, देव है, वन्दनीय है, पुण्यशाली है, महात्मा है, सचमुच में यह भाग्यशाली पुरुष है, मुझे भी यदि * विषय-सुख भोगने का अवसर मिल जाये तो में भी इसके समान विलास करूं।' इस प्रकार व्यर्थ के विचारों में गोते लगाता हया यह जीव केवल खेद को प्राप्त करता है। राज्य सेवा इस प्रकार की निष्फल कल्पनामों से दुःखित होकर, यह जीव उन वस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा से राजसेवा करता है । राजा की उपासना (सेवा) करता है। सर्वदा उनके सन्मख झुका हुआ रहता है। उनके मनोन कल बातें करता है। स्वयं शोकाक्रान्त होने पर भी स्वामी को हँसते देखकर स्वयं भी हँसता है। स्वयं के घर में पुत्र उत्पन्न होने से प्रानन्दमग्न होते हये भी स्वामी को रोते देखकर स्क्य भी रोने लगता है। राजा के प्रिय व्यक्ति स्वयं के शत्रु हों तब भी उनकी प्रशसा करता है। राजा के शत्रुओं की जो स्वयं के घनिष्ठ इष्टमित्र हों तब भी राजा के सन्मुख उनकी निन्दा करता है। राजा के आगे-पीछे दौड़ता रहता है । श्रम से चूर होने पर भी राजा के पैर दबाता है। उनके अशुचिपूर्ण स्थानों की भी हाथ से सफाई करता है। राज्य के आदेश से समस्त प्रकार के जघन्य कार्य भी करता है । यमराज * पृष्ठ ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy