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________________ ४८ अमिति-भव प्रपंच कथा समान और दरिद्री पुनः यह जीव सोचता है---'मेरो विविध प्रकार की अतुल सम्पत्ति और ऐश्वर्य की बात जब दूसरे राजा लोग सुनेंगे तब वे ईर्ष्या से अन्धे होकर, सब मिलकर मेरे राज्य पर चढ़ाई कर देंगे और उपद्रव एवं मारकाट चालू कर देंगे। ऐसी स्थिति में मैं अपनी चतुरंगिणी (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल) सेना को साथ लेकर उन पर टूट पडूगा । जब वे सैन्य-बल के दर्य में मेरे साथ युद्ध करेंगे तब उनके साथ लम्बे समय तक चलने वाला महायुद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। शत्रुगण संगठित होने से तथा साधन सम्पन्न होने से जब वे अपने प्रबल आक्रमण से मुभे. थोड़ा सा पीछे धकेल देंगे * तब मेरा क्रोध भड़क उठेगा और लड़ने का जोश भी जाग उठेगा। उस जोश के आवेश में मैं एक-एक के बर-पराक्रम को चकनाचूर कर दूंगा, सब को मार दूंगा। युद्ध-भूमि से भागकर पाताल में भी जायेंगे तब भी वे मुझसे बच नहीं सकेंगे।' पूर्ववणित उस रंक की भिक्षा के बचाव में अन्य भिखारियों के साथ लड़ाई के हवाई-किले के समान इस जीव की पूर्वोक्त मनोदशा को समझे। . पुनः यह जीव कल्पना करता है---'इस प्रकार समग्र भमण्डल के समस्त राजाओं पर विजया होने से मेरा चक्रवर्ती पद पर अभिषेक किया जायेगा । इससे त्रिभुवन (स्वर्ग, मृत्यु, पाताल) में ऐसी कोई वस्तु शेष नहीं रहेगी जो कि मुझे उपलब्ध न हो।' राजपुत्रादि की अवस्था में उत्पन्न जीव इस प्रकार के बहुधा निष्प्रयोजन हजारों संकल्प-विकल्पों के जाल में फंसकर अपनी आत्मा को आकुलित बनाये रखता है और रौद्रध्यान से पूरित होता है। इससे यह जीव सघन कर्मों को बांधता है और उसके फलस्वरूप नरक में पड़ता है तथा अनेक प्रकारों के दुःख और मानसिक वेदनाओं को भोगता है । पूर्वभवों में पुण्योपार्जन न करने के कारण उसे मानसिक-सन्ताप के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । इस विवेचन से यह समझना चाहिये - "जब यह जीव राज कुमार जैसी अवस्था में विशाल हृदय वाला होता है तब उसे उस समय सामान्य वस्तुएँ प्राप्त करने की कोई अभिलाषा नहीं होती, किन्तु वह विपुल और महर्घ्य अर्थ की कामना करता है, स्वाभाविक रूप से महत्वाकांक्षी होता है। ऐसे समय में भी जिन्होंने शान्तरस रूपी अमृतपान का आस्वादन कर उस रस की महत्ता को समझा है और जो विषयरूपी विष के दारुण विपाकों को जानते हैं, जो सिद्धिवधू को प्राप्त करने के अध्यवसायी हैं, ऐसे भगवस्वरूप श्रेष्ठ साधुजनों की दृष्टि में इस जीव की राजकुमारादि अवस्थायें तुच्छ दरिद्री जैसी प्रतीत होती हैं, तो फिर इस जीव की अन्य दयनीय अवस्थाओं का उनकी दृष्टि में स्थान ही कहाँ है ?" ॐ पृष्ठ ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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