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कुभोजन का संग्रह
प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
एकान्त में भिक्षा खाने की अभिलाषा
पुनः यह जीव अपने मन में विचार करता है - " ऐसा सुन्दर और बलिष्ठ शरीर हो जाने से मेरा चित्त अत्यन्त प्रमुदित होगा और मैं अगाध प्रेमरस के समुद्र में डूबकर, पूर्व वर्णित सुन्दर ललनाओं के साथ काम क्रीड़ा करूँगा । कदाचित् निरन्तर वर्धमान मदनरस के वशीभूत होकर अनवरत सुरत कीड़ा द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय को तृप्त करूँगा । किसी समय रसनेन्द्रिय ( जिह्वा) की तृप्ति के लिये मन को लुभाने वाने और समस्त इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले मनोज्ञ षड्स भोजन का आस्वादन करूँगा । कभी कपूर मिश्रित चन्दन, केशर, कस्तूरी आदि श्रति सुगन्धित पदार्थों का शरीर पर विलेपन कर, तज - इलायची - लोंग -जायफल और जावंत्री इन पाँचों सुगन्धित पदार्थों से सुवासित ताम्बूल को चबाते हुए घ्राणेन्द्रिय (नासिका) को तृप्त करूँगा । कभी निरन्तर वाद्यमान मृदंग की ध्वनि के साथ मानों देवांगनाओं का नृत्य हो रहा हो ऐसे भ्रम को पैदा करने वाले, मनोरम ललनाओं के हाव-भाव कटाक्षों से युक्त, अंग-विक्षेप, अंग-निदर्शन आदि विलास-विक्षेपों से युक्त दर्शनीय नृत्यों को देखते हुए मैं अपनी चक्षुरिन्द्रिय (आँखों) को तृप्त करूँगा । किसी समय मधुर कण्ठ वाले और संगीत विद्या में प्रवीण गायकों द्वारा प्रयुक्त वेणु, वीणा, मृदंग, काकली आदि वादित्रों की ताल-लय के साथ गायकों के गीत-गान सुनते हुए मैं अपनी कर्णेन्द्रिय (कान) को रससिक्त करूंगा । कभी समस्त कलाओं में पारंगत, समान अवस्था वाले, हृदय की गोपनीय बातें आपस में करने वाले, शूरवीर, उदार, पराक्रमी और सौन्दर्य में कामदेव को मात देने वाले अपने मित्रों के साथ विभिन्न प्रकार की काड़ा करते हुए समस्त इन्द्रियों को एक साथ ही तृप्त करूँगा ।' इस प्रकार इस जीव की ये अभिलाषायें पूर्व वर्णित प्राप्त भिक्षा को एकान्त स्थान पर ले जाकर खाने की भिखारी की अभिलाषा के समान ही समझें ।
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पुनः यह जीव अपने मन में विचार करता है 'मैं इस प्रकार का दीर्घसमान, शत्रु-पत्नियों के हृदय में स्नेहाजनों के भिन्न-भिन्न स्वभाव रखने वाले तथा मेरे समान
काल तक निरतिशय सुख भोगते हुए, देवकुमारों के दाह उत्पन्न करने वाले, स्वजन सम्बन्धी एवं प्रिय होते हुए भी सभी को समान रूप से । प्रसन्न ही मेरे सैकड़ों पुत्र होंगे । इस प्रकार मेरे मन के समस्त मनोरथ पूर्ण होंगे, मेरे समस्त शत्रु नष्ट हो जायेंगे और मैं अपनी इच्छानुसार अनन्त काल तक विचरण करता रहूँगा, अर्थात् सुख पूर्वक रहूँगा ।' इस प्रकार इस जीव के ये मनोरथ पूर्ववर्णित बाकी बची हुई भिक्षा को दूसरे दिन के लिये छिपा कर रखने के मनोरथ के समान ही समझें ।
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