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उपमिति भव-प्रपंच कथा
पुण्यक के प्रश्न को सुनकर 'इस सपुण्यक ने तो मुझे महाकार्य में लगा दिया' ऐसा विचार करती हुई विचक्षणा सद्बुद्धि ने महाध्यान में प्रवेश किया और इस प्रकार की कार्य- बाधा का अन्तरंग कारण क्या है, इसका मन में निर्णय किया और कहा - 'सभी प्राणी तुझ से प्रौषधि ग्रहण करें इसका एक ही उपाय है, वह यह है कि राजमार्ग में जहाँ लोगों का अधिक आवागमन होता है, वहाँ लकड़ी के एक विशाल पात्र में तीनों औषधियाँ रखकर, अपने मन में विश्वास रखकर, तू दूर बैठ जा । पहले की तेरी दरिद्रता को देखकर जो लोग तेरे हाथ से औषधि नहीं लेना चाहते, उनमें से भी कुछ को उसकी आवश्यकता हो सकती है । वहाँ किसी को न देखकर वे अपने आप ही औषधि ग्रहण करेंगे। उनमें से कोई सच्चा पुण्यवान और गुणवान प्राणी भी तेरी औषधि ले जाय तो तेरा मनोरथ पूर्ण हो जायेगा, ऐसा मैं मानती हूँ । कोई ज्ञानी या तपस्वी पात्र (व्यक्ति) इसमें से ओषधि ग्रहण करेगा तो तेरा कल्याण हो जायेगा ।' सद्बुद्धि के हंसे कुशल उत्तर से सपुण्यक के आनन्द में वृद्धि हुई और सद्बुद्धि के बताये हुये उपाय के अनुसार उसने कार्य किया ।
यह शाश्वत सत्य है कि उस दरिद्री द्वारा बताई औषधियों को जो प्राणी ग्रहण करेंगे वे सर्व रोग - रहित बनेंगे, क्योंकि नीरोग रहने की कारण भूत ये तीनों ही हैं । यहाँ जो वास्तविक सत्य कहा गया है, वह सब के लिये है । उनके ग्रहण से रचनाकार पर बड़ा उपकार होगा, अतः इस विषय में मुझ पर अनुकम्पा (कृपा) करने वाले सभी ये तीनों वस्तुएँ लेने की कृपा करें । ये सब के लेने योग्य हैं । इस प्रकार सक्षेप में दृष्टान्त आपको कह सुनाया, अब उसका उपनय (रहस्य, प्राशय) क्या है ? वह सुनाता हूँ, सुनें । [४५१-४६०]
संक्षिप्त उपनय
यहाँ जिसे प्रदृष्टमूलपर्यन्त नगर कहा है वह यह विशाल संसार है, जिसका कोई आरम्भ और अन्त दिखाई नहीं देता । यहाँ जिस निष्पुण्यक दरिद्री का वर्णन किया गया है वह महामोह द्वारा मारा हुआ, अनन्त दुःखों से भरपूर, पुण्यहीन और पूर्वकाल का मेरा जीव समझें । पूर्व में कहा गया था कि उस निष्पुण्यक के पास भिक्षा ग्रहण करने के लिये मिट्टी का ठीकरा है, उसे गुण और दोष के आधार रूप श्रायुष्य को भिक्षापात्र समझें । निष्पुण्यक को जो नटखट बाल त्रास देते थे, उन्हें कुतीर्थी समझें । उसे जो वेदना होती है, उसे मन की विकृत स्थिति समझें । राग आदि को रोग और अजीर्ण आदि को कर्म का संचय समझें । भोग शब्द से स्त्री, पुत्र आदि ग्रहण करें, वे ही जीव की अत्यन्त आसक्ति के कारण संसार की बढ़ोतरी करने वाले होते हैं, अतः उन्हें कुत्सित भोजन समझें । राजमन्दिर की सातवीं मंजिल पर विराजमान महाराज सुस्थित का वर्णन किया है, उन्हें सर्वज्ञ परमात्मा श्री जिनेश्वर भगवान् समझें । श्रानन्द उत्पन्न करने वाला और अनेक प्रकार की राजलक्ष्मो से परिपूर्ण राजमन्दिर को जिन शासन समझें । इस राजमन्दिर का द्वारपाल स्वकर्मविवर कहा है उसे स्वीय कर्मों का उच्छेदक समझें । इसके प्रतिरिक्त * पृष्ठ २७
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