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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध स्थिति को जानकर उसे स्वयं को लगने लगा कि, मैं पुण्यवान हं अतः लोगों में उत्तम स्थान को प्राप्त हुआ है ।अब कोई भा मेरे पास आकर ये तीनों औषधियाँ माँगेगा तो मैं अवश्य दूंगा। ऐसे विचार से वह प्रति-दिन इच्छापूर्वक किसी आगन्तुक की प्रतीक्षा करता रहता। अत्यन्त निर्गुणी प्राणी की भी जब महात्मा प्रशंसा करते हैं, तब वह इस अधम दरिद्री की तरह अभिगनी हो जाता है। वहाँ राजमन्दिर में रहने वाले सभी व्यक्ति नित्य तीनों औषधियों का भली प्रकार सेवन करते थे, उनके सेवन के प्रभाव से वे चिन्ता रहित होकर परम ऐश्वर्यशाली हो गये थे। निष्पुण्यक जैसे कुछ व्यक्ति जिन्होंने थोड़े समय पहले ही गजभवन में प्रवेश किया था, वे तीनों औषधियाँ अन्य लोगों से अच्छी मात्रा में अच्छी तरह प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजभवन में कोई भी उसके पास औषधि लेने नहीं आता था और वह औषध-इच्छुक व्यक्ति की राह में आँखें बिछाये बैठा रहता था। [४३५-४४१] हास्यास्पद स्थिति ४०. इस प्रकार बहत समय तक औषध-इच्छुक व्यक्ति की प्रतीक्षा करने पर भी जब कोई औषध लेने उसके पास नहीं आया तब एक दिन उसने सदबुद्धि से इसका कारण पूछा। सद्बुद्धि ने कहा--भद्र ! तुम्हें बाहर निकलकर यह घोषणा पुकार-पुकार कर करनी चाहिये कि इन तीनों औषधियों की जिसे भी आवश्यकता हो वह आकर ले जावे, ऐसा करने पर कोई लेने वाला शायद मिल जावे तो बहुत अच्छा होगा। सद्बुद्धि के परामर्श से वह उच्च-स्वर में पुकारने लगा-भाइयो ! मेरे पास तीन महागुणकारी औषधियाँ हैं, जिन्हें आवश्यकता हो, आकर मुझ से ग्रहण करें। इस प्रकार बोलते हुये वह घर-घर घूमने लगा। उसकी घोषणा सुनकर, जो अत्यन्त तुच्छ प्राणी थे, वे कभी-कभी उससे थोड़ी-थोड़ी औषधि ले लेते थे। इसके जैसे ही अन्य तुच्छ प्राणी सोचते थे--अहा ! पहले उस भिखारी को हमने देखा था, यह अब पागल हो गया लगता है । * देखो तो सही, राज्य कर्मचारियों से स्वयं औषधियाँ लेकर अब वह हमें बाँटने चला है। उसके विषय में ऐसे विचार करते हए कितने ही तुच्छ व्यक्ति उसकी मजाक करते, कितने ही हँसी उड़ाते और कितने ही उसके प्रति उपेक्षा से उसका अत्यन्त निरादर करते। [४४२-४४७] सदबुद्धि द्वारा समाधान अन्य प्राणियों को दान देने की उसकी रुचि और उत्साह को भग करने वाले लोगों के व्यवहार को देखकर एक बार सपुण्यक ने सद्बुद्धि से पूछा-भद्रे ! मेरी औषधि तो केवल भिखारी ही ग्रहण करते हैं, सम्पन्न आदमी तो कोई लेते हा नहीं। मेरी इच्छा यह है कि सब लोग मुझसे औषधि ग्रहण करें, उपयोग करें। निर्मल दष्टिधारिके ! तुम विशुद्ध चिन्तन करने वाली हो, भूत-भविष्य का विचार करने में तुम बहुत प्रवीण हो, अत. महात्मा पुरुष मुझसे औषधि क्यों नहीं ग्रहण करते, इसका क्या कारण है ? [४४८-४५०] * पृष्ठ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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