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________________ २६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा और रोग रहित होकर अपना कार्य सिद्ध किया है । तेरे रोग बहुत कठिन हैं, तेरा मन अभी भी अपथ्यकारी कुभोजन पर चिपक रहा है, इससे मुझे लगता है कि तेरे लिये असाधारण प्रयत्न किये बिना तेरी व्याधियों का नाश नहीं हो सकेगा। अतः हे वत्स सावधान होकर यत्न पूर्वक अपना चित्त स्थिर कर, इस विशाल राजभवन में प्रसन्नता पूर्वक रह । मेरी यह पुत्री तुझे बार-बार तीनों औषधियाँ देती रहेगी। तू उनका सेवन कर और अपनी आत्मा को आरोग्य (स्वस्थ) कर। धर्मबोधकर ने जो बात विस्तार पूर्वक कही वह द्रमुक ने स्वीकार की और धर्मबोधकर ने अपनी पुत्री तद्दया को उसकी परिचारिका बना दिया । द्रमुक ने अपना भिक्षापात्र सदा के लिये एक जगह पर रख दिया और उसकी रक्षा करते हुए उसका कुछ समय इस स्थिति में व्यतीत हुआ। [३२६-३३५] औषध सेवन के लाभ और अपथ्य भोजन से हानि ३१. तदया रात-दिन उसे तीनों औषधियाँ देती रही पर द्रमक को अभी भी अपने कुभोजन पर अत्यधिक आसक्ति रहने से उसे औषधियों पर पूर्ण विश्वास नहीं हो पाया। मोहवश वह अपने पास का कुभोजन अधिक खा लेता और तदया द्वारा दिया हुआ भोजन बहुत ही कम खाता । तदया जब उसे कहती तब वह कभीकभी थोड़ा सुरमा आँख में डालता और बार-बार प्रेरित करने पर थोड़ा-सा तीर्थ जल पीता। तद्दया विश्वास पूर्वक उसे महाकल्याणक भोजन प्रचुर मात्रा में देती, संपर वह थोड़ा खाकर बाकी अपने भिक्षापात्र में डाल देता। उसके तुच्छ भोजन के साथ इस सुन्दर भोजन की मिलावट हो जाने से वह उच्छिष्ट भोजन निरन्तर बढ़ता रहता और रात-दिन खाने पर भी वह समाप्त नहीं होता। अपने भोजन में इस प्रकार वृद्धि होते देखकर वह अत्यधिक प्रसन्न होता, पर किसके प्रताप से और किस कारण से उसके भोजन में वृद्धि हो रही है, इस बात पर वह कभी विचार नहीं करता। केवल अपने भोजन में आसक्त वह निष्पुण्यक तीनों औषधियों के प्रति निरन्तर कम रुचि वाला होने लगा और स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी बनकर सांसारिक मोह में अपना समय व्यतीत करने लगा। अपना अपथ्यकारी तुच्छ भोजन रात-दिन खाने से उसका शरीर तो अवश्य हृष्ट-पुष्ट हुआ पर तीनों औषधियों का अरुचि से कभी-कभी थोड़ा-थोड़ा सेवन करने से, उसकी व्याधियों का समल नाश नहीं हुआ। महाकल्याणक भोजन वह बहुत थोड़ा ले रहा था और सुरमे तथा जल का प्रयोग भी यदा-कदा करता था, फिर भी उसे प्रचर लाभ तो हुआ, और उसकी व्याधियाँ भी कम हुई, पर वस्तुस्वरूप का पूर्ण भान न होने से और अपथ्य भोजन का अधिक सेवन करने से, उसके शरीर पर कुभोजन के विकार स्पष्टतः दिखाई देते थे। अपथ्य भोजन के विशेष उपभोग से कई बार उसे उदरशूल होता, क बार शरीर में दाह ज्वर होता, कभी मूर्छा (घबराहट) आ जाती, कभी ज्वर आ जाता, कभा सर्दी-जुकाम हो जाता, कई बार जड़ (संज्ञाहीन) हो जाता, कई बार, * पृष्ठ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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