SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध २५ के बदले उल्टी अनर्थकारी हो जायेगी। महाराजा की उपर्युक्त आज्ञा सुनकर मैंने पूछा कि 'कोई व्यक्ति योग्य है या नहीं, इसे किस प्रकार पहचाना जाये? इसके उत्तर में महाराजाधिराज ने इन औषधियों के योग्य प्राणी के लक्षण इस प्रकार बताये। जो प्राणी इन औषधियों को लेने योग्य अभी तक नहीं बने हैं, उन्हें स्वकर्मविवर द्वारपाल इस राजभवन में प्रवेश ही नही करने देता । मैंने स्वकर्मविवर द्वारपाल को आज्ञा दे रखी है कि जो प्राणी इन तीनों औषधियों को ग्रहण करने की योग्यता रखता हो उसी को राजभवन में प्रवेश करने दें और जो अयोग्य हों उनको भीतर नहीं आने दे । फिर भी कोई व्यक्ति इस राजभवन में प्रवेश कर गया हो पर जिसे इस भवन को देखकर आनन्द प्राप्त नहीं होता, और जिस पर मेरी कृपा दृष्टि नहीं पड़ती, ऐसे व्यक्ति को किसी दूसरे द्वारपाल ने भूल से प्रवेश करा दिया है, ऐसा तुझे उसके लक्षणों से समझ लेना चाहिये और से व्यक्ति का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिये । अर्थात् उनको पुनः बाहर निकाल देना चाहिये । जो मेरे भवन को देखकर हर्षित होते हैं, आत्मा विकसित (प्रमुदित) होती है ऐसे भावीभद्र ( भविष्य में अच्छे होने वाले ) रोगियों पर मेरी विशेष कृपा दृष्टि होती है। स्वकर्मविवर ने जिस प्राणी को भवन में प्रवेश कराया हो और जिस पर मेरी कृपा दष्टि पड़ी हो, वह इन तीनों औषधियों के योग्य है, ऐसा समझना चाहिये । ये तीनों औषधियाँ उस प्राणी की कसौटी (परीक्षक) हैं। इनके प्रयोग से उस प्राणी पर इन औषधियों का कैसा गुण (प्रभाव) होता है, यह जानकर ही निश्चय करे कि यह प्राणी भवन में रखने योग्य है या नहीं ? जिनके मन में इन औषधियों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो और इनका प्रयोग जिनको बिना किसी प्रयास के गुणकारी हो, उन्हें सुसाध्य रोगी समझना चाहिये । जो प्रारम्भ में औषधि का सेवन न करे, पर बल या प्रयास पूर्वक समझाने से जो कालक्षेप के साथ धीरे-धीरे औषधियों का सेवन करें, उन्हें. कष्ट साध्य रोगी समझना चाहिये और जिनकी औषधि पर थोड़ा भी विश्वास न हो, जो औषधियाँ देने का प्रबन्ध करने पर भी न लें तथा औषधियाँ देने वाले के प्रति द्वष करें, उन्हें असाध्य रोगी और नराधम समझना चाहिये। [३११-३२५] इस प्रकार हमारे महाराजा ने सम्प्रदाय (पहले) से ही हमें कह रखा है, उसके अनुसार तू कृच्छ (कष्ट) साध्य रोगी है । ऐसा तेरे लक्षणों से भी स्पष्ट है। तुझे दूसरी एक और बात कहता हूँ, सुन । मेरी यह उपचार करने की पद्धति अनन्त शक्ति से भरपूर और सब व्याधियों का नाश करने वाली है, फिर भी जो प्राणी हमारे महाराज को जीवन पर्यन्त भाव पूर्वक राजा स्वीकार करते हैं और इस सम्बन्ध में अपने मन में किसी प्रकार की शंका नहीं रखते, उन्हें ही ये औषधियाँ लाभकारी होती हैं । अतः तू शुद्ध मानस से हमारे महाराज को अपना स्वामी स्वीकार कर; क्योंकि महापुरुष भाव और भक्ति से ही अपने बनाये जा सकते हैं। भूतकाल में भी “भनन्त प्राणियों ने महाराज को भक्ति पूर्वक अपना स्वामी स्वीकार कर, आनन्दित * पष्ठ १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy