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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध छाती और पसलियों में दर्द होता, कई बार उन्मादित-सा (पागल) हो जाता और कई बार पथ्य भोजन पर अरुचि हो जाती। इस प्रकार ये सब रोग उसके शरीर में विकार उत्पन्न कर उसे कई बार त्रास देते थे। ।३३६-३४७] तद्दया द्वारा उद्बोधन ३२. इस प्रकार व्याधियों एवं पीडाओं से घिरे हुए और रोते हुए निष्पूण्यक को एक बार कृपामयी तद्दया ने देखकर विचार किया और कहा-'भाई ! पिताजी ने पहले से ही तुझे कहा है कि तेरे शरीर में ये जो व्याधियाँ हैं वे कुभोजन पर तेरी प्रीति के कारण ही हैं। हम तुम्हारी सब वास्तविकता को देख समझ रहे हैं, पर तुम्हें आकुलता न हो इसलिये हम तुम्हें कुत्सित भोजन को खाने से नहीं रोकते । इन तीनों औषधियों के, जो महान् शान्ति प्रदाता हैं, सेवन में तेरी शिथिलता है और सब प्रकार के सन्ताप को पैदा करने वाले इस कुभोजन पर तेरी रुचि है। इस समय तू पीड़ा से छटपटाता हुआ रुदन कर रहा है पर तुझे शान्ति प्रदान कर सके, ऐसा कोई कारण वर्तमान में तो विद्यमान नहीं है जिसे अपथ्य पर अत्यन्त आसक्ति होती है, उसे औषधि नहीं लग सकती। मैं तेरी परिचारिका हूँ इस कारण मुझ पर भी अपवाद (उपालम्भ) आता है। मैं तुझे इतना समझाती हूँ, फिर भी तुझे स्वस्थ करने की अभी तो मेरे में शक्ति नहीं है 1' [३४८-३५३] तददया की उपयुक्त बात सुनकर निष्पुण्यक ने कहा, 'यदि ऐसा ही है तो अव से आप मुझे तुच्छ भोजन का उपयोग करने से बार-बार रोकें। क्योंकि यह भोजन करने की मुझे इतनी अधिक इच्छा रहती है कि स्वयं त्याग करने का उत्साह मझ में आ सके, ऐसा, मझे नहीं लगता। आपके प्रभाव से इस कुभोजन का थोडाथोडा त्याग करते हए इसका पर्ण त्याग करने की शक्ति मुझ में पैदा होगी।' यह सुनकर तद्दया ने तुरन्त कहा-'साधु ! साधु !! तेरे जैसे व्यक्ति को इस प्रकार करना ही चाहिये।' इस बातचीत के बाद वह उसे कुभोजन का सेवन करने पर बार-बार टोकती रही। इस प्रकार बार-बार टोकने से वह कुभोजन थोड़ा-थोड़ा त्याग भी करने लगा, जिससे उसकी व्याधियाँ कम होने लगी। जो विशेष पीडा होती श्री वह बद होने लगी और औषधियों का शरीर पर प्रभाव होने लगा। जब तददया पास में होती तो निष्पुण्यक अधिक मात्रा में सुभोजन और अल्पमात्रा में कुभोजन करता । इससे उसकी व्याधियाँ कम होने लगीं, परन्तु जब वह थोड़ी दूर चली जाती तब अपथ्य भोजन पर अब भी उसकी आसक्ति अधिक होने के कारण उसका सेवन करने लग जाता और औषधियों का सेवन थोड़ा भी नहीं करता, जिससे फिर से अजीर्ण आदि विकार उत्पन्न हो जाते। [३५४-३५६] धर्मबोधकर ने अपनी पुत्री तद्दया को सम्पूर्ण लोक (पूरे भवन) की देखरेख के लिये पहले से ही नियुक्त कर रखा था, अतः उसे तो अनन्त प्राणिगणों की सार-सम्भाल के काम में व्यस्त रहना पड़ता था, जिससे वह निष्पुण्यक के पास तो कभी-कभी ही आ पाती थी। बाकी पूरे समय तो वह अकेला ही रहता था। ऐसे पृष्ठ २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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