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________________ २२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा प्राणियों में अधम हूँ और आप पर मैंने किसी प्रकार का उपकार नहीं किया, फिर भी आप मुझ पर इतनी अनुकम्पा (दया) दिखा रहे हैं, अतः हे प्रभो ! आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरा नाथ नहीं है।' [२६२-२७०] औषध सेवन का उपदेश २६. इसके इस कथन पर धर्मबोधकर ने कहा-'यदि ऐसी बात है तो थोड़ी देर यहाँ बैठकर जो मैं कहता हूँ उसे सुनो और उस पर तद्नसार आचरण करो।' विश्वास के साथ दरिद्री के वहाँ बैठने पर, उसका हित करने को इच्छा से उसके मन को आनन्दित करने वाले सुन्दर मृदु शब्दों में धर्मबोधकर बोले-'तूने कहा कि मेरा आपके सिवाय कोई दूसरा नाथ नहीं है, पर तुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि राजाओं में श्रेष्ठतम राजाधिराज सुस्थित तेरे स्वामी हैं, महाराज जंगम और स्थावर (चल-अचल) सब प्राणियों और पदार्थों के स्वामी हैं, उसमें भी इस राजभवन में रहने वाले प्राणियों के तो वे विशेष रूप से नाथ हैं। जो भाग्यशाली प्राणी इन महाराज का दासत्व स्वीकार करते हैं, उनके इस भवन निवासी सभी प्राणी अल्पकाल में ही दास बन जाते हैं। जो प्राणी अत्यन्त पापी होते हैं और भविष्य में भी जिनका उत्थान होना सम्भव नहीं, वे बेचारे तो इन महाराज का नाम भी नहीं जानते । जो भावि-भद्र महात्मा इस राजभवन में दिखाई देते हैं, उन्हें पहले तो स्वकर्मविवर द्वारपाल प्रवेश करवाता है, फिर बिना किसी शंका के वे वस्तुतः इन्हें महाराज के रूप में स्वीकार करते हैं। अन्दर प्रवेश करने के बाद कुछ मुग्ध (मोह के वशीभूत) होते हैं, उन्हें जब मैं सब बात समझाता हूँ, तव वे समझते हैं। इस प्रकार हे भद्र ! तेरे सद्भाग्य से जब से इस विशाल राजभवन में तेरा प्रवेश हआ है, तब से महाराज सुस्थित ही तेरे स्वामी हैं । अब तू मेरे कथनानुसार जहाँ तक तू जीवित रहे तब तक शुद्ध चित्त से इन महाराज को अपना स्वामी स्वीकार कर । जैसे-जसे तू उनके गुणों का उपभोग करता जायेगा, वैसे-वैसे तेरे शरीर में पैदा हुये अनेक रोग धीरे-धीरे शमित होते जायेंगे। तुझे जो रोग हो रहे हैं, उनके शमन का और समूल नाश करने का उपाय यही है कि तू श्रद्धापूर्वक तीनों औषधियों का बार-बार प्रयोग कर । इसलिए हे सौम्य ! सब प्रकार के संशयों को छोड़कर इस राजभवन में सुख से रह । प्रत्येक समय बार-बार अंजन, पानी और भोजन का उपभोग करता रह। इस प्रकार दून तीनों औषधियों का बर-बार उपयोग करने से तेरे सभी रोग समूल नष्ट होंगे और इन महाराज की विशेष सेवा करतेकरते अन्त में एक दिन तू स्वयं नृपोत्तम (महाराज) बन जायेगा। यह तद्दया तुझे प्रतिदिन ये तीनों औषधियाँ देती रहेगी। अब मझे अधिक कुछ नहीं कहना है, पर तुझे फिर याद दिलाता हूँ कि तू इन तीनों औषधियों का बार-बार निरन्तर उपयोग करते रहना। [२७१-२८५] .. ॐ पृष्ठ १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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