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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध दरिद्री का आग्रह २७. धर्मबोधकर की उपर्युक्त मधुर बातें सुनकर निष्पुण्यक का हृदय आह्लाद से भर गया और उनकी बात को स्वीकार करते हुये भी वह कुछ सोचकर बोला--'स्वामिन् ! आपने इतनी बात कही तो भी मैं अभी भी अपने तुच्छ भोजन रूपी पाप को छोड़ नहीं सकता। इसके अतिरिक्त मुझ से जो भी कर्तव्य कराना हो उसे आप क हिये ।' [२८६-२८७] निष्पुण्यक को उपदेश २८. दरिद्री के ऐसे वचन सुनकर धर्मबोधकर सोचने लगा-*इसे तो मैंने तीनों औषधियों का उपयोग करने की बात कही, तो उसके उत्तर में यह क्या कहने लग गया ? अरे, हाँ, अब समझा, अभी तक इसके मन में ऐसा ही विचार चल रहा है कि मैं अभी उसके साथ जो बातचीत कर रहा हूँ, उसका उद्देश्य किसी भी तरह उस से कुभोजन का त्याग करवाने का ही है। ऐसा विचार वह तुच्छता-वश कर रहा है । सच कहा है :-'क्लिष्ट (मलिन) चित्त वाले प्राणी सम्पूर्ण जगत् को दुष्ट मानते हैं और शुद्ध विचार वाले प्राणी सम्पूर्ण ससार को पवित्र मानते हैं।' दरिद्री को अपने प्रयत्न का गलत अर्थ लगाते देखकर धर्मबोधकर तनिक मुस्कराये और बोले-भद्र ! तू तनिक भी मत घबरा। मैं तेरे पास से अभी तेरा तुच्छ भोजन नहीं छुड़ाता। तू बिना डरे अपने भोजन का उपयोग कर सकता है। मैंने पहले जो तुझे कुभोजन का त्याग करने को कहा था, वह तो मात्र तेरे हित के लिये कहा था, पर जब तुझे यह बात रुचिकर नहीं है तो मैं अब इस सम्बन्ध में चुप रहूँगा। पर तुझे क्या करना चाहिये, इस प्रसंग में अभी मैंने जो उपदेश दिया और महाराज का गुणगान किया, उसमें से तूने अपने हृदय में कुछ धारण किया, या नहीं ?' [२८८-२६३] निष्पुण्यक की स्वीकारोक्तिः २६. दरिद्री ने कहा-'हे स्वामिन् ! आपने जो कुछ भी कहा उसमें से कोई भी बात मेरे ध्यान में नहीं रही। आपके कर्णप्रिय मधुर भाषण को सुनकर मैं केवल अपने मन में प्रसन्न हो रहा था। सज्जनों की वाणी का परमार्थ (आशय) समझ में न आये तो भी वह वाणी स्वत: ही अति सुन्दर होने से मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करती है। दूसरे, जव आप बोल रहे थे तब मेरी आँखें आपके सामने थीं, पर मेरा चित्त कहीं ओर भटक रहा था, जिससे आप जो कुछ कह रहे थे वह एक कान में प्रवेश कर दूसरे कान से निकल जाता था। हे स्वामी ! उस समय मेरे मन की ऐसी विषम स्थिति का एक कारण था उस, समय मुझे जो भय था उसका अब नाश हो गया। अतः उस समय मेरे मन की ऐसी स्थिति क्यों हुई, उसका कारण बताने में अब मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरे मन की चंचल स्थिति का कारण आप सुनें--आपने मुझ * पृष्ठ १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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