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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध नहीं छोड़ सकता।' इस विपरीत मति को छोड़कर तू मेरी बात सुन । भविष्य में यह भोजन तेरे अनेक दुःखों को परम्परा का निर्वाह (पोषण) करेगा और तुझे अनेक दुःखों में पटक देगा । दुःख में डूबा हुआ तू क्या इस भोजन को रक्षा कर सकेगा ? नहीं । तेरा यह कहना कि मेरा यह स्वादिष्ट भोजन कैसा होगा? इसका तुझे विश्वास नहीं है । इसका समाधान भी मैं करता हूँ तू उसे विश्वास-पूर्वक ध्यान से सुन । तुझे. कलेश न हो और जितनी तेरी इच्छा हो इस प्रकार थोड़-थोड़ा यह परमान्न स्वादिष्ट भोजन तुझे दिया करूगा । अतः तू मिथ्या भ्रम का त्याग कर और इस परमान्न को ग्रहण कर । यह सुन्दर भोजन तेरी सभी व्याधियों (दों) को समूल (जड़ से) दूर करेगा, तेरे शरीर और मन को सन्तोष देगा, पुष्ट करेगा, रंग-रूप सुन्दर करेगा और वीर्य में वृद्धि करेगा। इस भोजन का भलो प्रकार सेवन करने से अनन्त आनन्द से परिपूर्ण होकर अक्षय स्थिति को प्राप्त कर; जिस प्रकार हमारे महाराज सुस्थित सुख में रमण करते हैं, उसी प्रकार तू भी हो जायेगा । अतः हे भद्र ! अपने दुराग्रह को छोड़। तेरा भोजन जो अनेक रोगों का कारण है उसका त्याग कर और इस परम औषध स्वरूप महाआनंद के कारण स्वरूप स्वादिष्ट भोजन को ग्रहण कर एवं उसका उपभोग कर।' [२४५-२६१] शर्त के साथ भोजन-दान २५. धर्मबोधकर के इस वक्तव्य को सुनकर निष्पुण्यक ने कहा-'भट्टारक महाराज ! मुझे अपने भोजन पर इतना स्नेह है कि उसके त्याग की कल्पना मात्र से मैं पागल होकर मर जाऊँगा, ऐसा मुझे लग रहा है । अतः हे महाराज ! यह मेरा भोजन आप मेरे पास रहने दें और अपना भोजन आप मुझे प्रदान करें', उसका ऐसा अत्यन्त आग्रह देखकर धर्मबोधकर ने मन में सोचा-इस बेचारे को समझाने का अभी तो बाधारहित कोई दूसरा उपाय नहीं है, अतः वह अपना कुत्सित भोजन भले ही अपने पास रखे, अपना यह भोजन तो इसे देना ही चाहिये। जब उसे इस स्वादिष्ट भोजन का रस लगेगा तब अपने आप ही वह उस कुभोजन का त्याग कर देगा। इस प्रकार सोचकर धर्मबोधकर ने कहा--'भद्र ! तेरा भोजन तेरे पास रहने दे और हमारा यह परमान्न भोजन ग्रहण कर तथा उसका उपभोग कर ।' दरिद्री ने कहा'ठीक है, मैं ऐसा करूंगा।' उसका ऐसा उत्तर सुनकर धर्मबोधकर ने अपनी पुत्री तद्दया को संकेत किया और उसने द्रमुक को भोजन दिया। दरिद्री ने तुरन्त उस भोजन को ग्रहण किया और वहीं बैठे-बैठे उसे खाया। इस भोजन से उसकी भूख शान्त हुई और उसके शरीर के प्रत्येक अंग-अग में जो रोग थे वे प्रचुर मात्रा में कम हुये । पहले आँख में सुरमे के प्रयोग से और फिर पानी पीने से उसे जो सूख प्राप्त हुआ था, उससे अनन्त गुणा सुख इस सुन्दर भोजन के करने से प्राप्त हुआ और उसके हृदय में अतीव प्रसन्नता हुई। ऐसा होने पर उस दरिद्री को धर्मबोधकर पर प्रीति एवं भक्ति उत्पन्न हुई और वह हर्षित होकर बोला, 'मैं भाग्यहीन हूँ, सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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