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________________ १६ उपमिति भव प्रपंच कथा आकार अवश्य धारण किये हुए है, पर अभी-अभी महाराज की जो कृपा दृष्टि इस पर हुई है, इससे यह अवश्य ही वस्तुत्व 1 ( राज्य और धन ) को प्राप्त कर लेगा, धनाढ्य बन जायेगा । ऐसा सोचकर धर्मबोधकर के हृदय में भी उस दरिद्री पर करुणा उत्पन्न हुई । लोक में यह कहावत सत्य है कि 'जैसा राजा वैसी प्रजा' | अर्थात् राजा का जैसा व्यवहार किसी एक प्राणी पर होता है वैसा ही उस पर प्रजा का भी होता है । ऐसा सोचते हुए धर्मबोधकर शीघ्रता से उसके पास आया और उसके प्रति आदर प्रकट करते हुए कहा, 'आओ, आओ, मैं तुम्हें भिक्षा देता हूँ ।' उस समय कुछ शरारती बच्चे निष्पुण्यक को छेड़ने और पीड़ा देने के लिये उसके पीछे पड़े हुए थे, वे सब धर्मबोधकर के शब्द सुनकर भाग गये । [ १७१ - १८५] तद्दया द्वारा भिक्षादान १४. फिर वह उसको प्रयत्नपूर्वक भिक्षुकों के बैठने के योग्य स्थान पर ले गया और उसे योग्य दान देने के लिये अपने सेवकों को आज्ञा दी । [१८६] धर्मबोधकर के तद्दया' नाम की एक अति सुन्दर पुत्री थी । अपने पिता की आज्ञा को सुनकर वह तुरन्त उठ खड़ी हुई और शीघ्र ही महाकल्याणक खीर ( पक्वान्न) लेकर निष्पुण्यक को भोजन कराने उसके पास गई। यह महाकल्याणक खीर का भोजन सर्व व्याधियों का नाशक, शरीर को वर्ण (रूप) तेज, शक्ति और पुष्टि को बढ़ाने वाला, सुगन्धित, रसदार और देवताओं को भी अप्राप्य एवं दुर्लभ अत्यन्त मनोहर था । उस दरिद्री के विचार अभी भी बहुत तुच्छ थे । अभी भी उसके मन में अनेक शंकाएँ उठ रही थीं । जब उसे भोजन के लिये बुलाया तो वह सोचने लगा- मुझे आगे होकर बुलाकर इतने प्राग्रहपूर्वक भिक्षा देने के लिये प्रयत्न किया जा रहा है, यह बात किसी भी तरह ठीक नहीं लगती । इससे अवश्य कुछ दाल में काला है । मुझे लगता है कि भिक्षा देने के बहाने कहीं एकान्त में ले जाकर मेरा यह भिक्षा से भरा हुआ पात्र भी मुझ से छीन लेंगे या तोड़ देंगे। तब मैं क्या करूँ ? सहसा यहाँ से भाग जाऊँ या यहीं बैठकर भोजन कर लू या यह कह कर कि मुझे भिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है, यहाँ से चला जाऊँ । ऐसे अनेक संकल्प-विकल्पों से उसका भय बढ़ गया जिससे वह यह भी भूल गया कि, वह कहाँ प्राया है और कहाँ बैठा है ? अपने भिक्षा पात्र पर उसे इतनी गाढ़ मूर्च्छा ( अधिक मोह) हो गयी कि उसकी रक्षा के लिये वह रौद्रध्यान ( दुर्ध्यान) में निमग्न हो गया । इसी दुर्ध्यान में उसकी दोनों आँखें बन्द हो गई । उसके मन पर विचारों का इतना प्रबल प्रभाव पड़ा कि उसकी सभी इन्द्रियों के कार्य थोड़ी देर के लिये बन्द हो गये और वह लकड़ी की भाँति चेतना - रहित और सख्त हो गया तथा १. २. * पृष्ठ ११ वस्तुत्व-धन, राज्य, सुख । वस्तुत्व अर्थात् सम्यक् बोध प्राप्त कर, अन्त में अनन्त सुख प्राप्त करना । तदया - सद्धर्माचार्य की वात्सल्य और करुणामयी दया पात्र | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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