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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
राजमन्दिर की सातवीं मंजिल पर सब से ऊपर के भवन में लीला में लीन सुस्थित नामक महाराजा बिराजमान थे । महाराजा वहीं बैठे हुए ग्रानन्द में व्यस्त नगर वासियों की दिनचर्या का व कार्य-कलापों का तथा नगर का अवलोकन कर रहे थे । इस नगर या नगर के बाहर ऐसी कोई वस्तु, घटना या भाव नहीं था जिसे सातवीं मंजिल पर बैठे सुस्थित महाराज न देख सकते हों । प्रत्यन्त वीभत्स दिखाई देने वाले, अनेक भयंकर रोगों से ग्रसित, सद्गृहस्थों के हृदय में दया उत्पन्न करने वाले निष्पुण्यक दरिद्री पर उसके मन्दिर में प्रवेश करते समय ही उनकी निर्मल दृष्टि पड़ गई थी । महाराजा की करुणा से श्रोत-प्रोत निर्मल दृष्टि पड़ते ही उस दरिद्री के कितने ही पाप धुल गये थे । [ १६५-१७०]
धर्मबोधकर की विचारणा
१३. सुस्थित महाराज ने अपने भोजनालय की देख-रेख के लिए धर्मबोधकर नामक राज्य सेवक को नियुक्त कर रखा था। उसने जब देखा कि दरिद्री पर महाराज की कृपा दृष्टि हुई है, तो वह साश्चर्य प्राशय पूर्वक विचार करने लगा कि मैं यह कैसी अद्भुत नवीन घटना देख रहा हूँ । जिस पर महाराज की विशेष रूप से दृष्टि पड़ जाती है, वह तो तुरन्त ही तीनों लोकों का राजा हो जाता है । यह निष्पुण्यक तो भिखारी है, रंक है, इसका पूरा शरीर रोगों से भरा हुआ है, लक्ष्मी के प्रयोग्य है, मूर्ख है और सम्पूर्ण जगत् के उद्व ेग को उत्पन्न करने वाला है । अच्छी तरह से विचार करने पर भी यह कुछ समझ में नहीं आता कि ऐसे दीन रंक पर महाराज की कृपा दृष्टि क्यों कर हुई ? अरे हाँ, ठोक है, मैं समझ गया कि स्वकर्मविवर नामक द्वारपाल ने इसे यहाँ प्रवेश करने दिया, यह महाराज ने श्रवश्य देख लिया है । यह स्वकर्मविवर द्वारपाल तो बहुत सूक्ष्म दृष्टि से परीक्षा करके ही किसी प्राणी को भवन में प्रवेश करने देता है । दरिद्री को भी कुछ सोच-समझकर ही उसने इसे भवन में प्रवेश दिया होगा । ऐसा लगता है कि राजा ने सम्यक् दृष्टि। पूर्वक इसे देखा है । इसके अतिरिक्त जिस प्राणी का इस राजभवन की ओर पक्षपात (प्रेम) उत्पन्न होता है, वह महाराज सुस्थित का प्रिय बन जाता है । यह दरिद्री जो आँखों की पीड़ा से निरन्तर परेशान था, वह अब भवन के दर्शन से अपनी श्राँख अच्छी तरह से खोल रहा है । अभी तक इसका मुँह अत्यधिक वीभत्स दिखलाई दे रहा था, पर अब इस सुन्दर राजभवन के दर्शन से इसे जो प्रमोद उत्पन्न हुआ है, उससे कुछ अच्छा हो गया लगता है । इसके धूलि धूसरित अंग कुछ स्वस्थ हुए हैं। और इसे बार-बार रोमांच हो रहा है । इससे लगता है कि इसे इस राजभवन पर अवश्य ही अनुराग उत्पन्न हुआ है । ऐसा जान पड़ता है कि यह दरिद्री भिक्षुक का
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सम्यक् दृष्टि- प्रेमपूर्ण दृष्टि, यह एक पारिभाषिक शब्द है । पुद्गल परावर्त के समय जब ग्रन्थिभेद होता है तब सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उस समय की स्थिति और योगबल को सम्यक दृष्टि कहते हैं ।
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