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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
उसकी सारी हलचल बन्द हो गई । तद्दया वहाँ खड़ी-खड़ी बार-बार उससे भोजन लेने का आग्रह करते-करते थक गई, परन्तु निष्पुण्यक ने उसकी ओर किंचित् ध्यान नहीं दिया। वह तो केवल अनेक रोगों को पैदा करने वाला अपने पास रखे हुए तुच्छ भोजन से बढ़कर अच्छा भोजन दुनिया में है ही नहीं, कहीं मिल ही नहीं सकता,
से विचारों में इतना फंस गया कि तदया द्वारा लाये गये सर्वरोगहरी, अमृत के समान स्वादिष्ट पक्वान्न भोजन का मूल्य भी वह नहीं समझ सका। [१८७-१९८] निरर्थक प्रयत्न
१५. ऐसी असंभावित घटना घटते देख कर पाकशालाध्यक्ष धर्मबोधकर ने अपने मन में सोचा-इस गरीब को प्रत्यक्ष सुन्दर खीर का भोजन देने पर भी न तो वह उसे ले ही रहा है, न कोई उत्तर ही दे रहा है, इसका क्या कारण है ? उल्टा इसका मुह सूख गया है, आँखें बंद हो गई हैं और इतना मोहग्रसित हो गया है कि मानो इसका सर्वस्व लुट गया हो। इस प्रकार यह लकड़ी के कोल (टुकड़े) की तरह निश्चेष्ट हो गया है। इससे लगता है कि यह पापात्मा ऐसे कल्याणकारी खीर के भोजन योग्य नहीं है। दूसरी तरह सोचें तो इसमें इन बेचारे का कोई दोष नहीं है। यह बेचारा तो शरीर की प्रान्तरिक और बाह्य व्याधियों से इतना घिर गया है और उनकी पीड़ा से इतना संवेदना-शून्य हो गया है कि कुछ भी जानने समझने में असमर्थ हो रहा है। यदि ऐसा न हो तो वह अपने तुच्छ - भोजन पर इतनी प्रोति क्यों करे ? यदि उनमें थोड़ी भी समझ हो तो वह ऐसा अनृत भोजन क्यों नहीं ग्रहण करे? [१६६-२०४] तीन औषधियाँ :-१. विमलालोक अंजन
१६. तब यह नीरोग कैसे हो? इसका मुझे उपाय करना चाहिये। अरे हाँ, ठीक है, इसको निरोग करने के लिये मेरे पास तीन सुन्दर औषधियाँ हैं। उसमें से प्रथम मेरे पास विमलालोक नामक सर्वश्रेष्ठ अंजन (सुरमा) है। वह आँख की सब प्रकार की व्याधियों को दूर करने में समर्थ है। उसे बराबर विधिपूर्वक आँख में लगाने से सूक्ष्म व्यवहित (पर्दे के पीछे या दूर रहे हुये), भूत और भविष्य काल के सर्वभावों को देख सके, ऐसी सुन्दर आँखें बना सकता है। [२०५-२०७] २. तत्व-प्रीतिकर जल
१७. दूसरा मेरे पास तत्त्वप्रीतिकर नामक श्रेष्ठ तीर्थजल है, वह सब रोगों को एकदम कम कर सकता है। विशेषतः शरीर में यदि किसी प्रकार का उन्माद हो तो उसका सर्वथा नाश करता है और पण्डित लोग कहते हैं कि सम्यक् प्रकार से देखने में यह सबसे अधिक सहायता करता है। [२०८-२०६]
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