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________________ ४३८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा श्री दुर्गस्वामी और स्वयं मुझ (सिद्धर्षि) को दीक्षा प्रदान करने वाले, महाभाग्यशाली मुनिपुंगव सर्वोत्तम गुरु श्री गर्गर्षि को मैं नमस्कार करता हूँ। [ १००४] क्लेिष्टेऽपि दुष्षमाकाले, यः पूर्वमुनिचर्यया । विजहारेह निःसङ्गो, दुर्गस्वामी धरातले ॥१००५॥ श्री दुर्गस्वामी अत्यन्त हीन दुःषमकाल में भी पूर्णरूपेण निःसंग होकर पूर्वकाल अर्थात् चौथे आरे की श्रमण-चर्या का पालन करते हुए भूतल पर विचरण करते थे। [ १००५ ] सद्देशनांशुभिर्लोके, द्योतित्वा भास्करोपमः । श्रीभिल्लमाले यो धीरो, गतोऽस्तं सद्विधानतः ॥१००६॥ सूर्य की उपमा के समान धैर्यशाली दुर्गस्वामी सद्देशना रूपी किरणों से लोक को उद्योतित करते हुए जीवन के सांध्य काल में सद्विधान पूर्वक श्रीभिल्लमाल नगर में अवसान को प्राप्त हुए।। १००६ ] तस्मादतुलोपशमः सिद्धर्षिरभूदनाविलमनस्कः । परहितनिरतैकमतिः सिद्धान्तनिधिर्महाभागः ॥१००७॥ दुर्गस्वामी के सिद्धर्षि (सद्ऋषि) हुए जो अतुलनीय उपशम के धारक, स्फटिक सदृश निर्मल चित्त वाले, परहित के करने में सदैव बुद्धि का व्यय करने वाले, सिद्धान्त के निधान और महाभाग्यशाली थे । [ १००७ ] विषमभवगर्तनिपतितजन्तुशतालम्बदानदुर्ललितः। दलिताखिलदोषकुलोऽपि सततकरुणापरीतमनाः ॥१००८॥ संसार के विषम गर्त में पड़े हुए सैकड़ों प्राणियों को अवलम्बन रूपी दान देने वाले थे, स्वयं लाड़-प्यार में पले थे, जिन्होंने समस्त दोष-पुञ्जों का दलन कर दिया था तथापि जिनका मन सर्वदा करुणा से ओत-प्रोत रहता था। [ १००८ ] यः संग्रहकरणरतः सदुपग्रहनिरतबुद्धिरनवरतम् । प्रात्मन्यतुलगुरणगरणैगरणधरबुद्धि विधापयति ॥१००६॥ यह सिद्धर्षि संग्रह/संक्षेप करने की कला में कुशल है, दूसरों पर निरन्तर सद् अनुग्रह और उपकार करता है और स्वयं के अतुलनीय गुणगणों के कारण वह तीर्थंकर के गणधर ही हों, ऐसी बुद्धि अन्य प्राणियों में उत्पन्न करता है । [ १००६ ] बहुविधमपि यस्य मनो निरीक्ष्य कुन्देन्दुविशदमद्यतनाः। मन्यन्ते विमलधियः सुसाधुगुणवर्णकं सत्यम् ॥१०१०॥ जिनका विविध प्रकार का मन कुन्द पुष्प अथवा चन्द्रबिम्ब के समान निर्मल देखकर आजकल के विमल बुद्धि वाले नवयुवक भी मौलिक ग्रन्थों में प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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