________________
ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति* द्य तिलाखिलभावार्थः सद्भव्याब्जप्रबोधकः । सूराचार्योऽभवद्दीप्तः साक्षादिव दिवाकरः ॥९६८॥
निखिल भावार्थों को प्रकाशित करने वाले और भव्य प्राणी रूप कमल को विकसित करने वाले साक्षात् सूर्य के समान तेजस्वी सूराचार्य हुए। [ ६६८ ]
स निवृत्तिकुलोद्भूतो लाटदेशविभूषणः । प्राचारपञ्चकोद्य क्तः प्रसिद्धो जगतीतले ॥६॥
ये सूराचार्य निवृति कुल में उत्पन्न हुए थे, लाट देश के आभूषण रूप थे, पंचाचार के पालन में सर्वदा तत्पर थे और जगतीतल में प्रसिद्ध थे। [ ६६६ ]
प्रभूद् भूतहितो धीरस्ततो देल्लमहत्तरः । ज्योतिनिमित्तशास्त्रज्ञः प्रसिद्धो देशविस्तरे ॥१०००॥
सूराचार्य के पश्चात् देल्लमहत्तर हुए, जो प्राणियों के हितकारी थे, धीर-वीर थे, ज्योतिष व निमित शास्त्र के ज्ञाता थे तथा देश के अधिकांश भाग में प्रसिद्धिप्राप्त थे। [ १००० ]
ततोऽभूदुल्लसत्कोत्तिब्रह्मगोत्रविभूषणः। दुर्गस्वामी महाभागः प्रख्यातः पृथिवीतले ॥१००१॥
उनके पश्चात् ब्रह्मगोत्र के विभूषण महाभाग्यशाली दुर्गस्वामी हुए । जिनकी कीर्ति उल्लसित हो रही थी और जो पृथ्वीतल पर ख्याति प्राप्त थे । [ १००१ ]
प्रव्रज्यां गृह्णता येन गृहं सद्धनपूरितम् । हित्वा सद्धर्ममाहात्म्यं क्रिययैव प्रकाशितम् ॥१००२॥
दुर्गस्वामी ने दीक्षा ग्रहण करते समय प्रचुर धन-धान्य से पूरित गृह को छोड़कर, सत्क्रिया के माध्यम से सद्धर्म के माहात्म्य को प्रकाशित किया । [ १००२ ]
यस्य तच्चरितं वीक्ष्य शशांककरनिर्मलम् । बुद्धास्तत्प्रत्ययादेव भूयांसो जन्तवस्तदा ॥१००३॥
दुर्गस्वामी का चन्द्रकिरण के समान निर्मल चारित्र देखकर, विश्वस्त होकर अनेक प्राणियों ने बोध को प्राप्त किया, अर्थात् संसार से विरक्त हुए । [ १००३ ]
सद्दीक्षादायकं तस्य, स्वस्य चाहं गुरुत्तमम् । नमस्यामि महाभागं गर्षि मुनिपुंगवम् ॥१००४॥
* पृष्ठ ७७५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org