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उपमिति भव-प्रपंच कथा
भिन्न-भिन्न प्राणियों की भव्यता अलग-अलग होती है और अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार वे अपने संसार का क्षय करते हैं, अतः संसार से पार उतरने के लिए मूल आधार प्राणी की अपनी भव्यता ही है । [ ६६३-६६४ ]
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भव्यों ! यदि आपको इस कथा के गूढार्थ / प्रान्तरिक भावार्थ को मन में धारण करना हो, कथा के रहस्य को समझना हो तो संक्षेप में इस परमाक्षर मूलमन्त्र को अपने हृदय - पटल पर अंकित करलें ।
इस संसार में जिनागम / जिन-मार्ग को प्राप्त कर सुमेधा वाले प्रत्येक मनुष्य को जैसे भी हो सके, जितना भी हो सके, उतना कर्ममल का विशोधन करना चाहिये, पाप को ढूंढ-ढूंढ़ कर निकाल फेंकना चाहिये । [ ६५ ]
प्रस्ताव का उपसंहार
एतन्निः शेषमत्र प्रकटितमखिलैर्यु क्तिगर्भैर्वचोभिः,
प्रस्तावे भावसारं तदखिलमधुना शुद्धबुद्ध्या विचिन्त्य ।
भो भव्या ! भाति चित्ते यदि हितमनघं चेदमुच्चैस्तरां वस्तत्तर्णं मेऽनुरोधाद् विदितफलमलं स्वार्थसिद्धयै कुरुध्वम् ।। ६६६ ।।
इस प्रस्ताव में मैंने युक्तिपूर्ण वचनों से जो-जो वृत्तान्त / घटना कही है वह समस्त भावार्थों/निष्कर्षों से परिपूर्ण है । हे भव्य प्राणियों ! इन सब पर शुद्ध बुद्धि से विचार करें । विचार के परिणामस्वरूप यदि आपको मेरा कथन निष्पाप लगे, यदि
पको यह कथन हितकारी लगे तो मुझ पर अनुग्रह कर इन ज्ञात- फल और अच्छे परिणाम वाली बातों को अपने जीवन में शीघ्र ही उतार लीजिये, इन्हें स्वीकार कीजिये और इन्हें अपने चारित्र में क्रियान्वित कीजिये । इसी में आपके स्वार्थ की परम सिद्धि है । [९९६ ]
उत्सूत्रमेव रचितं मतिमान्द्यभाजा, किञ्चिद्यदीदृशि मयाऽत्र कथा निबन्धे । संसारसागरमनेन तरीतुकामै
स्तत्साधुभिः कृतकृपैर्मयि शोधनीयम् ।। ६६७ ।।
उपर्युक्त कथा की रचना मैंने संसारसागर को पार करने की भावना से है । मेरी बुद्धि की अल्पज्ञता के कारण यदि इसमें कुछ सूत्र / सिद्धांत के विरुद्ध लिखा गया हो तो सज्जन पुरुष / सत्साधुगरण मुझ पर कृपा कर उसका संशोधन करलें, सुधार लें । [१७]
उपमिति भव-प्रपंच कथा के पूर्वसूचित वार्तामलक वर्णन रूप आठवां प्रस्ताव पूर्ण हुआ । उपमिति-भ -भव प्रपंच कथा सम्पूर्ण ।
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