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________________ प्रस्ताव ८ : ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति पादित एल. के गुण वर्णन को सत्य मानते हैं अर्थात् आदर्श साधु का जैसा शास्त्रों में वर्णन है, उसका यह सिद्धर्षि जीता जागता उदाहरण है । [ १०१० ] उपमितिभवप्रपञ्चा कथेति तच्चरणरेणुकल्पेन । गीर्देवतया निहिताऽभिहिता सिद्धाभिधानेन ॥१०११॥ यह उपमिति-भव-प्रपंच कथा गीर्देवता अर्थात् सरस्वती देवी ने बनाई है और सरस्वती के चरणरज-कल्प सिद्ध नामक महर्षि ने इस कथा का कथन किया है। । १०११ ] प्राचार्यो हरिभद्रो मे, धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त, स एवाद्य निवेदितः ॥१०१२॥ आचार्य हरिभद्रसूरि मेरे धर्मबोधकारक गुरु हैं। इस बात का मैंने प्रथम प्रस्ताव में ही निवेदन/संकेत कर दिया है । [ १०१२ ] विषं विनिर्ध य वासनामयं, व्यचीचरद्यः कृपया मदाशये। अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥१०१३॥ श्री हरिभद्रसूरि ने कुवासना से व्याप्त विष का प्रक्षालन कर मेरे लिये अचिन्तनीय वीर्य के प्रयोग से कृपा पूर्वक सुवासना रूप अमृत का निर्माण किया, ऐसे आचार्यश्री को नमस्कार हो । [ १०१३ ] अनागतं परिज्ञाय, चैत्यवन्दनसंश्रया । मदथै व कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥१०१४॥ अनागत काल का परिज्ञान कर जिन्होंने मेरे लिए ही चैत्यवन्दन से सम्बन्धित ललितविस्तरा नामक वृत्ति की रचना की। [ १०१४ ] यत्रातुलरथयात्राधिकमिदमिति लब्धवरजयपताकाम् । निखिलसुरभवनमध्ये सततप्रमदं जिनेन्द्रगृहम् ॥१०१५॥ यत्रार्थस्टङ्कशालायां धर्मः सदेवधामसु । कामो लीलावती लोके, सदाऽऽस्ते त्रिगुरगो मुदा ॥१०१६॥ तत्रेयं तेन कथा कविना निःशेषगुणगणाधारे । श्रीभिल्लमालनगरे गदिताऽग्रिममण्डपस्थेन ॥१०१७।। जहाँ अतुलनीय रथयात्रा महोत्सव से वधित, अखिल देवभवनों के मध्य में श्रेष्ठ उन्नत जयपताका से विभूषित और सतत प्रमुदित करने वाला जिनेन्द्र भगवान् का मन्दिर विद्यमान है। [ १०१५ ] * पृष्ठ ७७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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