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प्रस्ताव ८ : सुललिता को प्रतिबोध
३६६ • सभा संभ्रान्त हो गई और कुमार के पिता श्रीगर्भ राजा तो पूर्णत: अाकुल-व्याकुल हो गये । अरे पुत्र ! तुझे क्या हो गया ? • कहती हुई कुमार की माता कमलिनी कांपने लगी । हवा करने पर धीरे-धीरे कुमार की मूर्छा दूर हुई और उसमें चेतना पाने लगी।
चेतना प्राप्त होते ही उत्फुल्ल लोचन होकर कुमार ने श्रीगर्भ राजा से कहा- पिताजी ! आपके यहाँ पाने के पहले इन अनुसुन्दर चक्रवर्ती ने अपनी वास्तविक स्थिति के अत्यन्त विरुद्ध चोर का रूप धारण किया था और अपनी सम्पूर्ण आत्मकथा सुनाते हुए बताया था कि उन्हें किन-किन कारणों से संसार में भटकना पड़ा था । कथा सुनकर भी मुझे बोध नहीं हुआ था। मैंने सोचा था कि विशाल प्रज्ञायुक्त (प्रज्ञाविशाला) देवी महाभद्रा से इस कथा के आन्तरिक रहस्य के सम्बन्ध में पूछ गा । इसी बीच आप पधारे । परिषद् में पुनः चक्रवर्ती अनुसुन्दर ने सुललिता को अनुशासित प्रेरित प्रतिबोधित करने के लिये कथा का कुछ भावार्थ संक्षेप में सुनाया, जिसे सुनकर मेरा मन अकथनीय रूप से प्रमुदित हुा । इस अवर्णनीय प्रमोद से मुझे सहिष्णुभाव प्राप्त हुआ, अन्तर में चैतन्य जागृत हुआ जिससे मुझे मूर्छा आ गई । पर, इसी समय मुझे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। मुझे ध्यान आया कि पूर्व भव में मैं स्वयं कुलन्धर था और संसारी जीव (गुणधारण) का अभिन्न मित्र था । उस समय निर्मलाचार्य ने इस अनुसुन्दर चक्रवर्ती का जो विस्तृत भव-प्रपंच सुनाया था वह मैंने भी सुना था । चक्रवर्ती ने चोर के रूप में अभी जो अपनी अात्मकथा सुनाई यह वही थी जो निर्मलाचार्य ने सुनाई थी । यह सब स्मृति पथ में आते ही मेरे मन का संदेह दूर हो गया और उसी समय मुझे इस संसारबन्दीगृह से विरक्ति पैदा हो गयी। पिताजी ! अब आप मुझे आज्ञा दें ताकि मैं भी अनुसन्दर के साथ ही दीक्षा ग्रहण करू।। श्रीगर्भ और कमलिनि का दीक्षा ग्रहण का निश्चय
पुत्र को दीक्षा की आज्ञा माँगते देखकर कमलिनि देवी तो एकदम रो पड़ी। श्रीगर्भ राजा ने पत्नी से कहा-देवि ! क्यों रोती हो ? याद करो :
स्वप्न में तुमने एक पुरुष को मुख से प्रवेश करते और फिर बाहर निकलते देखा था । वही स्वप्न वाला उत्तम पुरुष यह पुण्डरीक है । यह महान् उत्तम गुरगों से सम्पन्न है, शुद्ध धर्म का प्रसाधक है और मंगल कल्याण का भाजन है। भविष्य में इसका उत्कृष्ट कल्याण/मंगल होने वाला है, अतः इसे रोकना उचित नहीं है। मेरे विचार से तो अपने सत्य स्नेह/निष्काम प्रेम को प्रकट करने के लिये हमें भी इसी के साथ दीक्षा ले लेनी चाहिये । देवि ! अभी यह छोटी उम्र का है, भोगसुख भोगने के योग्य है, फिर भी धर्म पथ पर आरुढ़ हो रहा है, तब हमारे जैसे वृद्धों का तो संसार-बंदीगृह में पड़े रहना कैसे उचित कहा जा सकता है ?
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