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________________ ܘ ܘ उपमिति-भव-प्रपंच कथा राजा का विचार सुनकर रानी कमलिनी अत्यन्त प्रसन्न हुई, हर्षावेश में गद्-गद् वाणी से बोली-पार्य-पुत्र ! आपने बहुत ठीक कहा, मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार्य है। इस प्रकार दोनों ने पुण्डरीक को दीक्षा की आज्ञा दी और उसी समय श्री. गर्भराजा और कमलिनी रानी ने भी दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। [६२८-६३२] सुललिता को विषाद : प्रश्न अनुसुन्दर के हदयवेधी भाषण से राजपुत्री सुललिता का हदय बिन्ध गया । पुण्डरीक और उसके माता-पिता के दीक्षा-तत्पर होने पर तो वह और भी संभ्रमित हो गई । उसमें संवेग उत्पन्न हुआ और उसने महाभद्रा साध्वी से हाथ जोड़कर आक्रोश और विषाद के साथ कहा-देवि ! मैंने पूर्व में ऐसा क्या कठोर पाप किया कि मैं ऐसी हो गई। देखिये ! यह पुण्डरीक तो घटना के समय उपस्थित था, मात्र कथा सुन रहा था, जो न तो इसे उद्देश्य कर और न इसे बोध देने के लिये ही कही गई थी तब भी क्षणमात्र में यह कथा के अन्तरंग भावार्थ को समझ गया। सचमुच यह राजपुत्र धन्य है ! महाभाग्यशाली अनुसुन्दर ने अत्यन्त आदर पूर्वक मुझे उद्देश्य कर विस्तार पूर्वक कथा सुनाई, फिर भी मुझ भाग्यहीना को न तो कथा का भाव ही समझ में आया और न बोध ही प्राप्त हुआ । मैं पशु की भांति गुमसुम बैठी रही।* अनुसुन्दर के एक वाक्य से इन तीनों भाग्यशालियों का संसार-सम्बन्ध भेदज्ञान पूर्वक छूट गया, पर मैं तो ग्राम्यजनों के समान अन्धी जैसी शून्य बनी रही और इनके स्पष्ट बोध का वास्तविक लाभ मुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ । हे भाग्यशालिनि ! आश्चर्य है कि जिसके लिये प्रयत्न किया गया उसे उसका लाभ नहीं मिला। मुझे लगता है कि इसमें कुछ गढ रहस्य होना चाहिये । देवि ! यदि आप जानती हो तो आप बताइये, अन्यथा सदागम से पूछकर बताइये कि किस पाप के उदय से मुझे बोध नहीं हो रहा है ? [६३३-६४१] सुललिता का समाधान इतना कहते-कहते सुललिता की आँखों में आँसू आ गये। उसके हदय की अवस्था को देखकर अनुसुन्दर को दया आ गई । उसने कहा- (६४२) मुग्धा सुललिता ! यदि तुझे अपने पूर्व पाप के बारे में जानने की जिज्ञासा है तो मैं बता देता हूँ, इसके लिये देवी महाभद्रा को कष्ट देने की आवश्यकता नहीं है । सुललिता-प्रार्य ! यदि आप ऐसा करें तो बड़ी कृपा होगी। आप ही बतायें। अनुसुन्दर-सुनों, जब मैं गुणधारण था तब मैंने दीक्षा ली थी। उस समय तू मदनमंजरी थी । तुझे भी वैराग्य उत्पन्न हुआ और मेरे साथ तुमने भी * पृष्ठ ७५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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