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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कि एक यात्री जैसे अन्य-अन्य स्थानों पर भिन्न-भिन्न भवनों में निवास करता है, वैसे ही मेरा वास्तविक स्वरूप (आत्मस्वरूप) एक रूप होने पर भी यात्री की भांति मैंने विविध भव प्राप्त किये । पथिक के समान में संसारी जीव हूँ। वस्तुत: भाव से एकरूप होने पर भी इस संसार नाट्यशाला में मैंने नये-नये रूप धारण किये और अनेक प्रकार के पात्रों का नाटक किया। यह सब सुनकर भी तुझे इस संसार-बन्दीगृह से निर्वेद नहीं होता, तब मैं क्या करूँ ? [६०८-६१६]
भद्रे ! अन्तरंग के अनेक नगर, राजा और रानियों के नाम तुझ बताये और उनकी दस कन्याओं के नाम भी बताये । प्रत्येक के गुण कितने दिव्य, अद्भुत और अन्यत्र अप्राप्त हैं यह भी बताया। इनके विवाह का वर्णन भी किया और तुझे व्युत्पन्न करने (समझाने) के लिये अष्ट मातृका का वर्णन भी किया, यह सब सुनकर भी हे बालिके ! तुझे बोध नहीं हुआ, तेरे हदय में जागृति नहीं आई और तुझे संसार से वैराग्य नहीं हुआ, तो तू पत्थर जैसी है । तुझे इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है ? [६१७-६१६]
हे मुग्धे ! मेरे स्नेह से बंधी हुई तूने भी निर्मलाचार्य के पास दीक्षा ली थी, तपस्या कर स्वर्ग में गई थी और वहाँ अनेक प्रकार के सुख भोगे थे। फिर भवचक्र में भटकती हुई यहाँ पाई, क्या तुझे कुछ भी याद नहीं है ? [६२०-६२१]
सम्यग्दर्शन को दोषी बताकर तीर्थंकर महाराजा की आज्ञा का उल्लंघन कर, उनकी पाशातना कर मैंने अत्यधिक दुःख प्राप्त किये और अर्धपुद्गल-परावर्तन से कुछ कम समय तक मैं संसार में भटका, यह सब कथा तुझ में संवेग जागृत करने के लिये ही मैंने कही, पर क्या तू ने उस पर ध्यान दिया?
याद कर, एक बार मैंने चौदह पूर्व तक का अध्ययन कर लिया था, पर अभिमान के दोष से पुनः अनन्तकाय आदि में बहुत समय तक भटका। इतनी विद्वत्ता होने पर भी भटकना पड़ा, इस पर थोड़ा विचार तो कर! ऐसी आश्चर्यजनक वार्ता सुनकर भी क्या तेरा मन चमत्कृत नहीं हुआ ? अरे ! ऐसी सच्ची और प्रत्यक्ष में अनुभूत बातें तुझे सुनाईं जिनमें से कुछ का तो तूने स्वयं अनुभव किया है। फिर भी यह तो अद्भुत बात है कि तू संवेग-रहित के समान ही दिखाई दे रही है। मैंने तुझे जो कुछ कहा, उस पर सूक्ष्म बोध पूर्वक विचार कर, मनन कर और उसके अन्दर के भावार्थ को पुन:- पुनः समझ । हे बालिके ! तू घबरा मत, मोह में मत पड़, सार को समझ और अब धर्माराधन में देर मत कर । जब तू ऐसा करेगी तभी मेरा सारा प्रयत्न सफल होगा और अपनी आत्मकथा सुनाने में जो परिश्रम मैंने किया है उसका भी मुझे फल प्राप्त होगा। [६२२-६२७]
३. पुण्डरीक को बोध इतका कहकर अनुसुन्दर चक्रवर्ती चुप हो गये । पुण्डरीक राजकुमार जो वहीं बैठा-बैठा अनुसुन्दर की बात सुन रहा था वह बात के समाप्त होते ही मछित होकर जमीन पर गिर पड़ा । अचानक यह क्या हो गया ? इस विचार से सारी
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