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प्रस्ताव ८ : चक्रवर्ती चोर के रूप में
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और इसकी चित्तवृत्ति का साम्राज्य अभी अपने अधीन कर निराकुल हो जानो, अन्यथा पछताओगे। [५३०-५३३]
हे भद्र ! भवितव्यता की सूचना को महामोह की सेना ने स्वीकार किया। जब मैं छोटा बालक था तभी से इन्होंने निरंकुश होकर मुझे चारों ओर से घेर लिया और मुझे पथभ्रष्ट करने लगे । मुझे अपने वश में रखने के लिये वे अनेक प्रयत्न करने लगे। उन्होंने मेरी बुद्धि और चेतना को अन्धा कर दिया जिससे मैं पूरे समय महामोह के परिवार के मध्य रहने लगा और अपने सद्बन्धुनों के परिचय को ही भूल गया । इस प्रकार मैं महामोह के साथ तन्मय हो गया। फिर मोहराजा और उसके महामायावी योद्धाओं ने मुझ पर अपनी शक्ति का पूर्ण प्रयोग किया। परिणाम स्वरूप मैं पाप में पूर्ण रूप से रच-पच गया, पापार्जन-परायण हो गया। मैं कुमारावस्था में ही मांस खाने लगा, शराब पीने लगा, जुना खेलने लगा और प्राणियों को अनेक प्रकार की पीड़ा देने लगा। युवावस्था आते ही मैं लोगों की स्त्रियों, कन्याओं और विधवाओं को सताने लगा और वेश्यागमन करने लगा। चक्रवर्ती बनने पर तो महा प्रारम्भ और महा परिग्रह में आसक्त हो गया। पापोत्पादक समस्त दोषों का निरपेक्ष होकर सेवन करने लगा। इस प्रकार चारों तरफ सभी स्थानों पर मैं धन-सम्पत्ति और इन्द्रिय विषयों में मछित होता रहा । इन आसक्तियों के कारण बाह्य दृष्टि से मैं अपने को अत्यन्त सुखी अनुभव करने लगा। इस वातावरण में रहते हुए मैंने महामोहादि रूप अपने भाव-शत्रुओं को अपना बन्धु माना और अपने पूर्व वृत्तान्त को पूर्ण रूप से भूल गया । [५३४-५४१]
पापी मित्रों के प्रसार की वृद्धि के परिणाम स्वरूप मैंने अपनी चित्तवृत्ति अटवी को मलिनतम बना दिया, चारित्रधर्मराज की सेना को पराजित अवस्था में चारों तरफ से घिरी हुई और दबी हुई अवस्था में रहने दिया और अन्तरंग की क्षान्ति आदि अन्तःपुरस्थ स्त्रियों की उपेक्षा की । बाह्य दृष्टि से मैं महान प्रभावशाली राजा के रूप में प्रवर्धित होता रहा, किन्तु इधर कर्मपरिणाम राजा का राज्य भी अधिक प्रकाश में आने लगा। पापोदय बलवान होता गया, और महामोह राजा की सम्पूर्ण सेना अधिक प्रबल होकर धूम मचाने लगी। उन्होंने मेरी चित्तवृत्ति अटवी में फिर से नगर बसाये, प्रमत्तता नदी में बाढ़ पैदा कर दी, इस नदी के तद्विलसित द्वीप को विस्तृत किया और चित्तविक्षेप मण्डल को ढंढकर अधिक स्वच्छ कर दिया। तृष्णावेदिका को फिर से सम्मार्जन कर तैयार किया, * विपर्यास सिंहासन को सुसज्जित किया और महामोह राजा ने अपनी अविद्या रूपी शरीर का पोषण कर उसे पुष्ट कर लिया। इस प्रकार उन्होंने पहले से उपस्थित सभी सामग्री का नवीनीकरण कर दिया।
सभी सामग्री के तैयार हो जाने पर परस्पर मंत्रणा होने लगी। विषयाभिलाष मंत्री ने कहा- प्रिय मित्र महीपालों! आप सब मेरे परामर्श पर विचार * पृष्ठ ७४२
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