SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९० उपमिति-भव-प्रपंच कथा करें । यह तो आप लोगों को स्मरण होगा कि पहले आप बुरी तरह हार चुके हैं। दिन-दहाड़े आग के शोले लपटें देख चुके हैं । इसलिये इस घटना को दोहराने की क्या आवश्यकता है । इस प्रसंग में थोड़ी सी उपेक्षा के कारण ही पहले हमारा लगभग नाश हो गया था। अतः इस महत्त्व के विषय में इस बार थोड़ी-सी भी उपेक्षा करना योग्य नहीं होगा। वीरों! अभी से ऐसे प्रयत्न में लग जाओ जिससे कि हमारा राज्य सदा के लिये निष्कंटक रूप से स्थापित हो जाय । [५४२-५४४] महामोह की पूरी सेना को विषयाभिलाष मंत्री के ये विचार युक्तिसंगत प्रतीत हुए। उन्होंने पूछा कि, इस प्रसंग पर उन्हें विशेष रूप से क्या-क्या करना चाहिये ? उत्तर में मंत्री ने तत्काल करने योग्य सभी कार्य बता दिये। जब मैं अधिक प्रोत्साहित हो गया तब उन्हीं के उपदेश से कर्मपरिणाम राजा द्वारा उस क्षेत्र में स्थापित कार्मण वर्गणा में से मैंने पाप नामक द्रव्य को प्रचर मात्रा में ग्रहण किया । उन्हीं लोगों ने मुझ से यह चोरी करवाई और उन्हींने फिर कर्मपरिणाम राजा के समक्ष मेरी शिकायत की। कर्मपरिणाम राजा ने आज्ञा दी कि 'मुझे अनेक प्रकार से पीड़ित करते हुए पापी-पिंजर में ले जाया जाय और वहाँ तड़फा-तड़फा कर मार दिया जाय ।' राजा की आज्ञा से अधम कर्मचारी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने मेरे शरीर पर कर्मरज की राख (भस्म) लगाई, राजस् सोनागेरु के छापे लगाये, तामस घास से पूरे शरीर पर काले तिल-तिलक बनाये, मेरे गले में प्रबल रागकल्लोल-परम्परा नामक कनेर-मुण्डों की माला पहनाई, कुविकल्पसंतति रूपी कौडियों की दूसरी लम्बी माला पहनाई, मेरे सिर पर पापातिरेक नामक फूटी मटकी का ठीकरा छत्र के रूप में रखा, मेरे गले में अकुशल नामक पापकर्म की पोटली लटकाई, असदाचार नामक गधे पर बिठाया और यम जैसे दुष्टाशय प्रादि मोहराजा के कर्मचारियों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया । विवेकी लोग मेरी निन्दा करने लगे, कषाय नामक डिम्भ (बच्चे) मेरे चारों ओर हो-हल्ला करने लगे, शब्दादि इन्द्रिय-संभोग रूपी फूटे नगारों की कर्कश आवाजें होने लगीं और बाह्य प्रदेश निवासी विलास नामक उपद्रवी मनुष्य अट्टहास द्वारा मेरी हंसी करने लगे। महामोहादि राजाओं ने ऐसी विकृत प्राकृति में देशदर्शन के बहाने मुझे पूरे महाविदेह के बाजार में घुमाया और वधस्थल की ओर ले चले । इसी आकृति में मुझे इस चित्तरम उद्यान के निकट लाया गया। ___इसी समय तुम लोगों ने मेरी सेना की आवाज सुनी और साध्वी महाभद्रा मेरे पास आई। इधर मैंने सेना को पीछे छोड़ दिया और राजवल्लभ तथा अपने विशेष पुरुषों के साथ मैं इस चित्तरम उद्यान में पाया। मेरे सुन्दर हाथी पर से मैं इस उद्यान के रक्त अशोक के वृक्ष के नीचे उतरा ।*यह दिव्य उद्यान मुझे बहुत रमणीय * पृष्ठ ७४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy