SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा संकेता) इस कथन के आन्तरिक रहस्य को लेशमात्र भी नहीं समझ पाई है। अतः यदि मैं चक्रवर्ती के रूप में प्राचार्यप्रवर के सन्मुख जाऊँगा तो उस बेचारी का सदागम/गुरुवचन पर विश्वास उठ जायगा; क्योंकि वह शुद्ध आगमों (सदागम) के भावार्थ को किञ्चित् भी नहीं जानती। उसे यह पता नहीं है कि इस चक्रवर्ती को ही भगवान् सदागम ने चोर कहा है। साथ ही मुझे लगा कि राजकुमार पुण्डरीक को भी मेरे चोर के रूप में आने से ही बोध प्राप्त होगा, क्योंकि यह भव्यपुरुष श्रेष्ठ मति (सुमति) वाला है और मेरा अथ से इति तक पूरा वृत्तान्त सुनकर वह उसके आन्तरिक भावार्थ को समझ जायगा । इसी के फलस्वरूप राजकुमार पुण्डरीक भी प्रतिबोध को प्राप्त होगा। इसीलिये मैंने वैक्रिय लब्धि से अपने आन्तरिक व्यवहार को सूचित करने वाले चोर के समस्त प्राकार-प्रकार को धारण किया। अन्तरंग चौर्य-स्वरूप अनुसुन्दर चक्रवर्ती द्वारा उपयुक्त स्पष्टीकरण के बाद भी सूललिता के मन में अनेक शंकाएँ उठने लगीं । सरल स्वभावी प्राणो अपने मन की शंका को तुरन्त पूछ लेते हैं । अतः सुललिता ने पूछा-आपने जिस अंतरंग चोरी की बात कही, वह क्या है ? इस चोरी के लिये इतनी अधिक पीड़ा और विडम्बना क्यों दी जाती है ? अपनी आत्मकथा और उससे सम्बन्धित अन्य लोगों का समग्र विस्तृत * वृत्तान्त आपने कैसे जाना ? कृपया इन सब के विषयों में विस्तार से स्पष्टीकरण करिये । आपकी कथा नवीन प्रकार की और कुतूहल उत्पन्न करने वाली है, जितनी अधिक स्पष्ट होगी उतनी ही अधिक रसवर्धक होगी। __ सभी प्रश्नों के उत्तर का मन में विचार कर सुललिता (अगृहीतसंकेता) को प्रतिबोधित करने के लिये अनुसुन्दर से कहा अन्तिम प्रैवेयक से मैं सुकच्छविजय की क्षेमपुरी नगरी के राजा युगन्धर और रानी नलिनी के पुत्र अनुसुन्दर के रूप में उत्पन्न हुआ। जिस समय मेरा नामकरण महोत्सव हो रहा था उसी समय भवितव्यता ने महामोह आदि राजाओं को प्रोत्साहित करते हुए कहा था : भाइयों! यह अनुसन्दर वर्तमान में सम्यगदर्शन से बहुत दूर हो गया है, अत: अभी अपने स्वार्थ-साधन के लिये तुम्हें जो भी प्रयत्न करने हों वे कर लो। यदि एक बार भी यह सम्यग्दर्शन से मिल जायगा तो वह अपने वर्ग की शक्ति बढ़ा लेगा। फिर पहले की भांति यह सम्यग्दर्शन तुम्हारा बाधक बनेगा और यह अनुसुन्दर भी त्रासदायक बनेगा। अभी तो थोड़े से प्रयत्न से वह तुम्हारे वश में हो जायगा, पर सद्बोध आदि इसके सहायक हो गये तो फिर इसको वश में करना अत्यधिक कठिन होगा । अतः अभी ही जैसे बने वैसे इसको अपने वश में करलो • पृष्ठ ७४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy