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________________ प्रस्ताव ८ : चक्रवर्ती चोर के रूप में ३८७ आचार्य-जब इसे तेरे दर्शन होंगे और जब वह हमारे समक्ष आयेगा तभी उसकी मुक्ति हो सकेगी। महाभद्रा-क्या मैं उसके सन्मुख जाऊँ ? प्राचार्य-हाँ जायो । इसमें क्या दुविधा है ? फिर करुणा से ओत-प्रोत महाभद्रा मेरे सन्मुख आई और बोलीं-*भद्र ! भगवान् सदागम की शरण स्वीकार कर । इस प्रकार कहने के साथ ही महाभद्रा मुझे भगवान् के समक्ष ले पाई । समस्त परिषदों ने वधस्थल पर ले जाते हुए मुझे चोर के वेष में देखा। भगवान् को दूर से देखकर ही मुझे अवर्णनीय सुख प्राप्त हुआ। इस सुखानुभव से मुझे मूर्छा आ गई। मूर्छा दूर होने पर मैंने भगवान् का शरण स्वीकार किया और भगवान् ने भी मुझे "मत डरो” कहकर आश्वस्त किया। भगवान् के आश्वासन से मुझे अभयदान प्राप्त हुआ । राजपुरुष जो मुझे वधस्थल पर ले जाने आये थे वे भगवान् के प्रभाव से दूर भाग गये। पकड़ने वालों के भाग जाने और भगवान् की शान्त मुद्रा के सन्मुख होने से मैं सावधान/सजग हो गया । तत्पश्चात् जब तुमने मुझ से मेरा वृत्तान्त पूछा तब मैंने भगवान समन्तभद्र का, महाभद्रा का, पूण्डरीक का और तुम्हारा समग्र कथानक विस्तार से कह सुनाया। यद्यपि तुमने अपना समस्त वृत्तान्त तो स्वयं अनुभव किया है, फिर भी स्वानुभव की प्रतीति अर्थात् तुम्हारा विश्वास जमाने के लिये और तुम्हें लाभान्वित करने के लिये उसे फिर से सुनाया; जिससे तुम्हें सम्प्रत्यय/ विश्वास (प्रतीति) हो जाय कि संसारी जीव ने जो कुछ कहा वह स्पष्टत: निर्णीत बात ही कही है और अन्य सभी घटनाओं पर तुझे पूर्णत: सम्प्रत्यय/विश्वास हो जाय । कहो, बहिन ! अब तुम्हें मेरी आत्मकथा पर विश्वास हुआ या नहीं ? शंका-समाधान सुललिता ने कहा--- मेरे प्रात्मानुभव के वृत्तान्त का मुझे विश्वास हा है, किन्तु एक शंका रह गई है जिसे मैं नहीं समझ पाई । यदि आप स्वयं अनुसुन्दर चक्रवर्ती हैं तो फिर आपने चोर का रूप किसलिये धारण किया ? संसारी जीव-भद्रे ! तुम दोनों को प्रतिबोधित करने के लिये ही मैंने बाहर से चोर का रूप धारण किया है। तुझे यह बताया गया था कि संसारी जीव नामक चोर चोरी के माल के साथ पकड़ा गया है और कर्मपरिणाम राजा की प्राज्ञा से उसे वध-स्थल पर ले जाया जा रहा है । तुझे ऐसा कहकर महाभद्रा मेरे पास आई। उनके दर्शन की कृपा से मुझे प्रतिबोध हुआ। मैंने सोचा कि यद्यपि अत्यन्त विशाल बुद्धिवाली महाभद्रा (प्रज्ञाविशाला) भगवान् द्वारा कथित मेरा अन्तरंग चोर और चोरी का स्वरूप भलीभांति समझ गई है तथापि सुललिता (अगृहीत * पृष्ठ ७४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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