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________________ प्रस्ताव ८ : महाभद्रा और सुललिता ३८१ सुललिता का परिचय एक बार अन्य साध्वियों के साथ प्रवर्तिनी महाभद्रा विहार करती हुई रत्नपुर आ पहुँची। यहाँ मगधसेन राजा राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम सुमंगला था । भवितव्यता ने मदनमंजरी के जीव को सुललिता की पुत्री के रूप में उत्पन्न किया। इसका नाम सुललिता रखा गया। क्रमश: वह तरुणी हुई, पर वह पुरुषद्वेषिणी बन गई। उसे किसी भी पुरुष का नाम, परिचय या उसकी छाया भी रुचिकर नहीं थी। उसे पति नाम की गन्ध से भी घृणा थी, अतः उसके माता-पिता उसके लग्न के विषय में चिन्तातुर थे।। ___ जब महाभद्रा प्रवर्तिनी का रत्नपुर में पदार्पण हुआ तब मगधसेन राजा और सुमंगला रानी भी उनको वन्दन करने उपाश्रय में गये और अपनी प्रिय पुत्री सुललिता को भी साथ ले गये । प्रवर्तिनी को वन्दन कर उनसे मोक्षपदरूप कल्पवृक्ष को निश्चित रूप से उत्पन्न करने वाले बीज के समान "धर्मलाभ" का शुभाशीष प्राप्त किया। फिर उनसे अमृतप्रवाह जैसा शुद्ध धर्मोपदेश सुना। यद्यपि भगवती का उपदेश अत्यन्त स्पष्ट था तथापि सुललिता बहुत भोली थी, अतः वह उसके अन्तरंग भावार्थ को नहीं समझ सकी, तदपि पूर्वभव के राग के कारण वह प्रवर्तिनी के प्रति आकर्षित हुई और भगवती महाभद्रा के मुख-कमल को टकटकी लगाये देखती रही । फिर उसने पिता से कहा-हे तात ! मुझे प्रवर्तिनीजी के चरण कमलों की उपासना करनी है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं भी उनके साथ सर्वत्र विचरण करूँ।। पुत्री की मांग सुनकर रानी तो रो पड़ी, किन्तु राजा ने उसे रोककर कहादेवि ! रोने से क्या लाभ ? पुत्री का मन जिस कार्य से प्रसन्न हो वह उसे करने देना चाहिये । उसके मन में विनोद पैदा करने का यही उपाय है, इसी से वह ठीक होगी। मेरे मत से वह गृहस्थ रूप में साध्वीजी के साथ भले ही रहे और विहार करे, पर हमसे पूछे बिना दीक्षा ग्रहण नहीं करे । सुललिता ने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया और साध्वीजी के साथ रह गई । माता-पिता अपने घर चले गये ।। प्रवर्तिनी महाभद्रा के साथ सुललिता अनेक देशों में घूमी । उसके ज्ञानावरणीय कर्म का उदय इतना अधिक था कि उसे एक भी पाठ याद नहीं होता था। साधु-साध्वी के आचार या श्रावक के आवश्यक भी उस बेचारी को नहीं आ पाया। आगम के पाठ समझाने पर भी उसे उसका भावार्थ समझ में नहीं आया। ___ अन्यदा विहार करते हुए महाभद्रा साध्वी सुललिता के साथ शंखपुर नगर श्रा पहुँची और नन्द सेठ के घर की पौषधशाला में ठहरी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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