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प्रस्तव ८ : नौ कन्याओं से विवाह : उत्थान
८. पाठवीं माता के प्रभाव से साधु लोग प्रयोजन के अभाव में अपने शरीर को कछुए की तरह संकुचित कर रखते हैं। कारणवश चलना-फिरना आवश्यक हो तो यह कायिक दोषों से बचाती है (कायगुप्ति) ।
प्रथम दिन जैनपुर में इन पाठ मातृकाओं की स्थापना कर विधिपूर्वक पूजा की गई। [३६६-३८०]
पश्चात् चित्तसमाधान-मण्डप-स्थित निःस्पृहता वेदी को विशेष रूप से स्वच्छ कर सज्जित किया गया । चारित्रधर्मराज ने अपने तेज से वहाँ एक विस्तीर्ण अग्निकुण्ड निर्मित कर उसे प्रदीप्त किया। लग्न के समय की जाने वाली सभी यथोचित तैयारियां पूर्ण की गई।* फिर तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्याओं ने वधुओं के स्नान, विलेपन, वस्त्राभूषण आदि कार्य सानन्द सम्पन्न किया । इन्हीं माताओं ने और मेरे सामन्तों तथा राजाओं ने मुझे भी स्नान, विलेपन आदि कराकर वस्त्राभूषण से सज्जित किया। [३८१-३८४]
तत्पश्चात् सानन्द लग्न विधि प्रारम्भ हुई। सबोध मन्त्री स्वयं पुरोहित बने। उन्होंने कर्म रूपी समिधा (लकड़ियों) को अग्नि में डालकर यज्ञ प्रारम्भ किया और इसमें सद्भावना रूपी आहुतियां देने लगे। अञ्जली भर-भर कर कुवासना रूपी लाजा को अग्निकुण्ड में डालने लगे। सदागम स्वयं ज्योतिषी बना और उसकी उपस्थिति में वृष लग्न के अमुक अंश में मेरा क्षान्ति कन्या से पाणिग्रहण सम्पन्न हा। इस विवाह के होते ही शुभपरिणाम आदि राजा और निष्प्रकपता आदि रानियां अत्यन्त हर्षित और प्रमुदित हुये। फिर उसी वृष लग्न में मेरा दया आदि पाठ कन्याओं से विवाह सम्पन्न हुआ। फिर मैं जीववीर्य नामक अति विस्तृत सिंहासन पर अपनी सभी पत्नियों के साथ बैठा। चारित्रधर्मराज आदि सब को इस विवाह महोत्सव से अतिशय हर्ष हुआ और वे प्रमुदित होकर अनेक प्रकार का विलास करने लगे। वैश्वानरादि उपशान्त
मेरा जब विद्या से परिणय हुअा था तभी से परमार्थतः महामोह निर्बल हो गया था। पर, वह पूरे समुदाय की आत्मा था, सारभूत नेता था। कहावत है कि "रस्सी जल जाने पर भी उसका बट नहीं जाता" अत: जली हुई रस्सी के समान अभी भी वह मेरे समीप ही था । क्षान्ति आदि कन्याएं वैश्वानर आदि शत्रुओं की प्रबल विरोधिनी होने से वे तो सब भागे ही, पर चारित्रधर्मराज ने तो पापोदय सहित महामोह की पूरी सेना को भगा दिया। महामोह छिपकर चुपचाप बैठा था, पर अब वह त्रस्त होकर हिंसा, वैश्वानर आदि नौ लोगों के साथ मुझ से बहुत दूर जा बैठा। मेरे शत्रु अभी पूर्ण नष्ट नहीं हुए थे, पर वे शान्त हो गये थे जिससे मुझे प्रमोद हुआ।
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