________________
उपमिति भव-प्रपंच कथा
अपनी दस श्रेष्ठ पत्नियों से प्रालिंगित होकर, अपने सैन्य बल और परिवार से घिर कर अब मैं अन्तरंग विलास में उद्दाम लीला का आत्म-साक्षात्कार स्वयं अनुभव करने लगा । इस आत्मिक सुख के अनुभव से अब मुझे निर्मलाचार्य के कथन की सत्यता पर पूर्ण विश्वास हुआ । [३८५-३६१]
३६८
अब शुभ परिणाम राजा और निष्प्रकंपता रानी से उत्पन्न अन्य अनेक कन्या - धृति, श्रद्धा, मेधा, विविदिषा, सुखा, मैत्री, प्रमुदिता, उपेक्षा, विज्ञप्ति, करुणा आदि का विवाह भी मुझसे कर दिया गया ।
इन सब सुभार्याओं के साथ अब मुझे जिस अत्यन्त आनन्द और अलौकिक रस का अनुभव हुआ वह अवर्णनीय था । मैंने सोचा कि निर्मलाचार्य ने पूर्व में मुझे जिस सम्पूर्ण सुख के अनुभव की बात कही थी, * उसका साक्षात्कार अब मुझे हो रहा है । इस प्रकार मैं अब सप्रमोद नगर में रहता हुआ प्रमोदातिरेक का अनुभव कर रहा था । इसी समय आचार्यश्री मुनिमण्डल सहित विहार करते हुए वापस सप्रमोदपुर आ पहुँचे और उसी प्रह्लाद मन्दिर उद्यान में ठहरे। उनके आने के समाचार मिलते ही मैं तुरन्त अत्यन्त आदरपूर्वक उद्यान में गया और श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक वन्दन किया । [३६२-३६७ ]
द्रव्यतः मुनिवेषधारण
अपने दोनों हाथ जोड़कर ललाट पर लगाते हुए, हे बहिन अगृहीतसंकेता ! मैंने आचार्यश्री से निवेदन किया- भगवन् ! आपके प्रादेशानुसार अब तक मैंने समस्त कार्य पूर्ण कर लिये हैं, अत: हे नाथ ! अब मुझे दीक्षित करने की कृपा करें ।
आचार्य बोले- राजन् ! तुम्हें भावदीक्षा तो स्वतः ही प्राप्त हो गई है, अब क्या दीक्षित करें ? विशेषतः जो श्रमण रूप में अनुष्ठान करने का था उसे तो तुमने घर में रहते हुए भी सम्पन्न कर ही लिया । वस्तुतः तुम भावश्रमण तो बन ही गये । फिर भी विद्वान् लोक व्यवहार का उल्लंघन नहीं करते, अतः हे नृपति ! अब तुम्हें द्रव्यदीक्षा प्रदान करेंगे । क्योंकि, भावदीक्षा के साथ-साथ बाह्य वेष भी प्रात्मोन्नति का निमित्त कारण बनता है, अतएव तुम्हें द्रव्यदीक्षा भी प्रदान करते हैं । [३६८-४०३]
मैंने कहा - भगवान् की बहुत कृपा ।
तत्पश्चात् आठ दिन तक जिन-पूजा, मुनिजनों की पूजा, नगरवासियों को आनन्दित और बन्धुवर्ग की सार-संभार करते हुए, याचकों को इच्छानुसार दान देते हुए, अपने पुत्र जनतारण का राज्याभिषेक कर और तत्समयोचित समस्त कार्य सम्पन्न कर मैं मदनमंजरी, कुलन्धर और प्रधान नागरिकों के साथ निर्मलाचार्य के पास विधि पूर्वक दीक्षित हुआ ।
*
पृष्ठ ७२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org