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प्रस्ताव ८ : विद्या से लग्न : अन्तरंग युद्ध
रहा था मानो गंगा और यमुना का संगम हो रहा हो। रथी योद्धा रथ वालों से, हाथी वाले हाथियों की घनघटा के समक्ष, घोड़े वाले घोड़े वालों से और पदाति पैदल सैनिकों से लड़ रहे थे। युद्ध में सैकड़ों सैनिक जमीन पर गिर कर लोट रहे थे । प्रत्यक्ष में योगियों को भी विस्मित करने वाला, अत्यन्त उद्भट पुरुषार्थ को प्रकट करने वाला और अनेक योद्धाओं से संकीर्ण दोनों सेनाओं का तुमुल युद्ध चल रहा था। [३३७-३४१]
दोनों सेनाओं के भीषण और संशयकारक इस भयंकर युद्ध के समाचार सुनकर कर्मपरिणाम महाराजा इस विकट परिस्थिति में मन ही मन में सोचने लगे कि, अरे इस समय मुझे प्रत्यक्षत: (खुल्लमखुल्ला) किसी एक सेना का पक्ष नहीं लेना चाहिये । क्योंकि, इससे मनों में भेद की रेखा खिच जायेगी। मुझे तो दोनों ही सेना वाले तटस्थ मानते हैं, अत: प्रकट रूप से एक का पक्ष लेने से दूसरे रुष्ट हो जायेंगे । मेरा प्रकट पक्षपात देखकर महामोहादि मेरे मित्र मुझ से अलग हो जायेंगे । असमय में ऐसी विकट परिस्थिति अपने हाथों उत्पन्न करना युक्तिसंगत नहीं है । यद्यपि अभी मुझे चारित्रधर्मराज की महाबली सेना प्रिय लग रही है और संसारी जीव के सद्गुण भी अच्छे लग रहे हैं तथापि संसारी जीव का क्या विश्वास ? वह फिर दोषों की तरफ झुक सकता है और तब जिन पर मैं सदा से आश्रित हूँ उन मेरे बन्धु महामोहादि के बिना मेरी क्या गति होगी ? अतः मेरे लिये अभी यही हितकारक होगा कि अभी मैं प्रच्छन्न रूप से ही चारित्रधर्मराज की सेना को पुष्ट करूं, जिससे यदि पापोदय आदि उससे पराजित हो जायें तब भी भविष्य में महामोहादि मेरे बन्धु मुझ से विरुद्ध नहीं होंगे। इस प्रकार मन में सम्यक् रीत्या निश्चय कर कर्मपरिणाम ने गुप्तरूप से तुम्हारे पास आकर मदुपदिष्ट तुम्हारी भावनाओं में वृद्धि की। [३४२-३४६]
हे गुणधारण ! जब तुम इस प्रकार उच्चतर भावना पर आरूढ़ थे तभी सबोध मन्त्री की सेना प्रबल हो गई । कहा भी है कि "मणि, मन्त्र, औषधि और भावना की अचिन्त्य शक्ति * अद्भुत आश्चर्यकारक होती है।" जैसे-जैसे तेरी विशुद्ध एवं उच्च भावना बढ़ती गई वैसे-वैसे युद्ध में महामोहादि स्वतः ही निर्बल होते गये, हारते गये। क्षणभर में सद्बोध की सेना का प्राबल्य बढ़ता गया और उसने पापोदय की सेना को जीत लिया। महामोहादि समस्त शत्रुओं को लहूलुहान कर दिया और ज्ञानसंवरण राजा को विशेष रूप से चूर-चूर कर दिया। पापोदय
आदि निस्तेज और निष्पन्द हो गये, ठण्डे पड़ गये और सद्बोध जीतकर विद्या सहित तुम्हारे निकट पाने लगा। उस समय हे राजन् ! युद्ध का शुभ परिणाम देखकर तू भी सद्बोध मन्त्री के निकट गया और तेरे मन में अत्यधिक हर्षोल्लास हुआ। फिर तो सद्बोध मन्त्री ने आकर विद्या का लग्न तुझ से कर ही दिया ।
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