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________________ ३६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा महामोहराज की सेना में खलबली : युद्ध इस समाचार को सुनते ही महामोह आदि शत्रों में खलबली मच गई। पापोदय की अध्यक्षता में वे इस पर विचार करने लगे। _ विषयाभिलाष बोला–यदि हत्यारा सद्बोध संसारी जीव के पास पहुँच गया तो समझ लो कि हम सब बे-मौत मर गये । इसलिये हम सब को मिलकर, उसके मार्ग को रोक कर यथाशक्य उसके वहाँ पहुँचने में बाधा डालनी चाहिये ।। उत्तर में पापोदय ने कहा—आर्य ! अभी जब कि हमारे स्वामी कर्मपरिणाम महाराजा स्वयं उनके पक्ष में हैं तब हम क्या कर सकते हैं ? जब तक वे हमारे पक्ष में थे तब तक हम प्रबल थे । महाराजा के दोनों सेनाओं के प्रति तटस्थ रहने पर भी हम उनसे युद्ध करते हैं और वह हमारा कर्तव्य भी है। पर, अभी तो सद्बोध कर्मपरिणाम महाराजा की आज्ञा से ही संसारी जीव के पास शीघ्रता से जा रहा है, तब उसे रोकना कैसे उचित हो सकता है ? इस समय महाराजा का मेरे पास युद्ध करने का कोई आदेश भी नहीं है, इसीलिये उन्होंने हमें उससे दूर बिठा रखा है । ऐसी परिस्थिति में अभी सद्बोध को उसके पास जाने देना चाहिये और हमें योग्य अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिये । अवसर आने पर हम उसे समझ लेंगे। [३२३-३३१] __ यह सुनकर ज्ञानसंवरण राजा के होठ क्रोध से फड़क उठे। वह शीघ्र युद्ध के लिए जाने को उद्यत हुअा और कड़क कर बोला- यदि मेरे जीवित रहते मेरा प्रतिपक्षी सद्बोध बिना किसी रुकावट के संसारी जीव के पास चला जाता है, तो मेरा जीना व्यर्थ है । इस प्रकार भयभीत होने से तो मेरा जन्म मात्र माता को क्लेश देने वाला ही माना जायगा ।* तुम लोग भय से शिथिल पड़ गये हो तो तुम्हारी इच्छा, प्रानो या न पायो, मैं तो यह चला उसे रोकने । [३३२-३३४] लज्जा के मारे पापोदय प्रादि भी ज्ञानसंवरण के पीछे-पीछे चले और सब ने जाकर सद्बोध मन्त्री के मार्ग को रोक लिया, पर उनके मन में यह शंका थी कि न जाने अब क्या होगा ? "अनैक्य और संशय विनाश के कारण होते हैं" यह तो जगत् प्रसिद्ध ही है । [३३५-३३६] इधर चारित्रधर्मराज की सेना भी सद्बोध मन्त्री के साथ चलते हुए उस स्थान पर पहुंच गई जहाँ ज्ञानसंवरण और पापोदय आदि अपनी सेना के साथ उसका मार्ग रोके खड़े थे। दोनों सेनायें परस्पर एक-दूसरे को ललकारने लगीं, सिंहनाद/गर्जना करने लगी, युद्ध-वाद्य बजने लगे और उनमें भीषण युद्ध छिड़ गया। एक तरफ अत्यन्त श्वेत शंख के समान सून्दर सफेद रंग की सेना थी तो दूसरी तरफ काले भौरों के समान कृष्ण रंग वाली सेना थी। दोनों का परस्पर युद्ध ऐसा लग * पृष्ठ ७२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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