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प्रस्ताव ८ : कार्य-कारण- श्रृंखला
उल्लंघन करता है या इनके विपरीत आचरण करता है, वह इनका स्वरूप जानने पर भी दु:खी होता है । मोह के वशीभूत प्राणी जितने अंश में इन आज्ञाओं का उल्लंघन करता है उतना ही दुःखी होता है और जितने अंश में इनका पालन करता है उतना ही सुखी होता है । अतएव यह स्पष्ट है कि समस्त प्राणियों को इसकी आज्ञा का उल्लंघन करने से दुःख और आज्ञा-पालन से सुख प्राप्त होता है । [२७१-२६०]
त्रैलोक्य में एक भी ऐसी अच्छी-बुरी घटना या उसका एक अंशमात्र भी ऐसा नहीं जो उपर्युक्त प्रज्ञा की अपेक्षा रखे बिना घटित होता हो, अर्थात् इस संसार में होने वाली सभी क्रियाएँ, प्राणी की सभी प्रवृत्तियों के परिणाम, मन वचन काया की प्रवृत्ति आदि सब कुछ इस सिद्ध-प्राज्ञा के प्रप्रतिहत नियमों के अनुसार घटित होती हैं । इसीलिये ये सिद्ध प्रभु राग-द्वेष और इच्छारहित होने पर भी और हमसे इतनी दूर निर्वृत्ति नगरी में रहने पर भी सभी कार्यों के परम कारण हैं, ऐसा समझें। [२ε१-२ε२]
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हे गुणधारण! संसार के सभी भले-बुरे कार्यों के परम हेतु वे सिद्ध भगवान् ही हैं, इसमें कोई संशय नहीं है । तुझे पूर्व में जो विविध प्रकार के दुःख हुए वे सभी उनकी आज्ञा के उल्लंघन के कारण ही हुए। अभी उनकी आज्ञा का कुछ अंश में पालन करने से तुझे थोड़ा-थोड़ा सुख प्राप्त होता जा रहा है । जब तू उनकी प्राज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करेगा तब तुझे वास्तविक सच्चे सुखसंदोह का रस ज्ञात होगा । तेरे सभी कार्यों के लिये उपर्युक्त कारणों में से कुछ कारण मुख्य हैं और कुछ गौण हैं । इन सबको तुझे तेरे कार्यों के कारण रूप में बराबर समझ लेना चाहिये । हे राजन् ! उपर्युक्त कारणों में से एक की भी अनुपस्थिति में कार्य सिद्धि नहीं हो सकती । संक्षेप में, उपर्युक्त सभी हेतुनों को कार्य सिद्धि के लिये कारणसमाज | हेतुसमूह के रूप में जानना चाहिये । [२६३-२६७]
गुणधारण - भगवन् ! क्या आपने कार्य के सभी कारणों को बता दिया है ? क्या इतने ही कारण हैं ? अथवा अन्य भी कारण हैं जो बताने में शेष रह गये हैं ?
आचार्य - राजन् ! प्रायः सभी हेतुनों को मैंने बता दिया है । इन सभी कारणों के एकत्रित होने पर ही कार्य सिद्ध होता है । नियति (भाग्य) और यदृच्छा आदि एक दो कारण और भी हैं पर वे भवितव्यता के अन्तर्गत ही आ जाते हैं ।
हे सुलोचनी प्रग्रहीत संकेता ! इस प्रकार गुणधारण के भव में मेरे स्वप्न सम्बन्धी सन्देह का आचार्यश्री निर्मलसूरि केवली ने विस्तृत रूप से स्पष्टतया निराकरण किया, जिससे मेरी शंका नष्ट हुई और मैंने हाथ जोड़कर आचार्य के वचनोक्ते शिरोधार्य किया । [ २६८ - ३०१]
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