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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा आचार्य-- राजन् ! सुनो-निरन्तर आनन्द-सन्दोह से पूर्ण, निरामय, अति मनोहर एक निर्वृत्ति नामक नगर है। वहाँ अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द से परिपूर्ण सर्वज्ञ सर्वदर्शी सुस्थित नामक महाराजा राज्य करते हैं। यही महाराजा संपूर्ण जगत के परमेश्वर हैं, विश्व के प्रभु हैं और संसार के सभी प्राणियों के अच्छे-बुरे सभी कार्यों के परम कारण भी यही हैं। ऐसी सिद्ध आत्माएँ अनेक हैं, पर गुण की दृष्टि से वे सब एक ही हैं, अतः प्राचार्यों ने उन्हें एक ही बताया है। ये सब अचिन्त्य शक्तिसम्पन्न आत्माएँ हैं, अतः महात्माओं ने इन्हें ही परमेश्वर कहा है। ये ही बुद्ध हैं, ये ही ब्रह्मा हैं, ये ही विष्णु हैं, ये ही महेश्वर हैं, ये ही अशरीरी हैं और ये ही जिन हैं । तत्त्वद्रष्टा महात्मा इन्हें इन्हीं नामों से पहचानते हैं । तेरी कार्य-परम्परा के कारण ये अपनी इच्छा से नहीं बनते; क्योंकि ये तो वीतराग हैं, राग-द्वेष और सर्व इच्छाओं से रहित हैं। कोई भी कार्य बिना इच्छा के नहीं होता और जहाँ इच्छा होती है वहाँ राग-द्वेष होता ही है, किन्तु वीतराग परमात्मा में तो राग-द्वेष हो ही नहीं सकता । फिर वे तुम्हारी सुन्दर या असुन्दर कार्य-परम्परा किस प्रकार करते हैं ? तथा किस प्रकार कार्य निष्पत्ति होती है ? मैं तुझे स्पष्टतः समझाता हूँ। इन सिद्ध भगवान् ने सभी लोगों को अनुशासन में रखने के लिये एक अपरिवर्तनीय, त्रिकाल, स्पष्ट और निश्चल विधान बना रखा है। उस विधान की आज्ञाओं का सभी लोगों को पालन करना चाहिये । ये प्राज्ञाएँ निम्न हैं : १. अपनी चित्तवृत्ति को अन्धकार-रहित करें और उसे गौ-दुग्ध, मुक्ताहार, प्रोसकरण, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत, शुद्ध और प्रकाशमान करें। २. महामोह राजा और उसकी सेना को, जो भयंकर संसार के कारण हैं, अपने शत्रु रूप में पहचानें और प्रति क्षण उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करें। ३. चारित्रधर्मराज और उनकी सेना जो महान कल्याणकारी है, उन्हें अपने हितेच्छु और मित्र रूप में पहचानें और सर्वदा उनका पोषण करें। विधाता की/सिद्ध प्रभू की यह हितकारिणी आज्ञा त्रिकाल सिद्ध है और* सभी लोगों के लिये समान है, अतः उनकी आज्ञा का पालन करने वाले सभी अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे पूजा, ध्यान, स्तवन, व्रत-पाचरण आदि के द्वारा इन आज्ञाओं का पालन करें और इन्हें अपने जीवन में उतारें। जिन पाचरणों का निषेध किया गया है, उन्हें करने से आज्ञा-भंग होता है। इन महाराजा ने द्वादशांगी (१२ अंगों) में बहुत-सी बातें कही हैं, पर उन सबका सार उपरोक्त प्राज्ञानों में आ जाता है । इन आज्ञाओं का यह माहात्म्य है कि जो व्यक्ति जितने अंश में इनका पालन करता है वह उतने ही अंश में सुखी होता है । चाहे वह इन प्राज्ञाओं का स्वरूप जानता हो या न जानता हो । जो प्राणी इन आज्ञाओं का * पृष्ठ ७१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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