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________________ ७. दस कन्याओं से परिणय सैन्य-स्तम्भन का कारण अवसर का लाभ उठाकर मैंने निर्मलाचार्य केवली से विद्याधरों की सेनाओं के स्तम्भन के विषय में मेरे मन में जो प्रति आश्चर्य हो रहा था उस विषय में भी प्रश्न पूछ ही लिया*-प्रभो ! मेरे समक्ष जब विद्याधरों की सेना युद्ध करने आई थी तब दोनों ही सेनाओं का आकाश और भूमि पर स्तम्भन किस कारण से हुआ था और किसने कर दिया था ? __प्राचार्य राजन् ! उसमें भी अन्तिम कारण पुण्योदय ही है । इसी ने अन्य कारणों को प्रेरित किया है। इसी की शक्ति और प्रेरणा से वनदेवता तुझ पर प्रसन्न हुए और दोनों सेनायें स्तम्भित हो गईं। तुम्हारी इच्छा थी कि तुम्हारे कारण से विद्याधरों में परस्पर खून की नदी न बहे इसीलिये उन्हें स्तम्भित किया था। फिर तेरी इच्छानुसार ही उन्हें स्तम्भन से मुक्त भी कर दिया था और उन्हें तेरे भाई जैसा बना दिया था। इस प्रसंग में वनदेवता ने जो कार्य किया वह भी वस्तुतः पुण्योदय ने ही किया था, क्योंकि वनदेवता को प्रेरित करने वाला भी यही निष्पाप पुण्योदय ही था। हे नरोत्तम ! यह पुण्योदय दूसरों को प्रेरणा देकर सब प्रशस्त कार्य दूसरों से करवाता है, स्वयं कोई कार्य नहीं करता। इसका स्वभाव है कि वह काम का यश सदा अन्यों को दिलाता है । इसी प्रकार पापोदय भी अन्य द्वारा अशुभ कार्य करवाता है और अपयश का भागी अन्यों को बनाता है । हे नृप ! संसार में जो भी भले-बुरे कार्य होते हैं उनके हेतु कुछ अन्य ही दिखाई देते हैं, पर वास्तव में वे हेतु गौरण होते हैं, मुख्य हेतु तो पुण्योदय या पापोदय ही होते हैं । पहले भी तुझे जो अनेक प्रकार के दुःख भिन्न-भिन्न कारणों से हुए हैं, उनके पीछे भी मुख्य कारण यह पापोदय ही रहा है। हे गुणधारण ! अब पुण्योदय का समय आया है तो वह भी भिन्न-भिन्न साधनों से तुझे सुख पहुँचा रहा है, पर बाह्यवस्तुएँ तो निमित्त मात्र हैं, वास्तविक कारण तो पुण्योदय ही है। [३०२-३१२] शुभाशुभ बाह्य निमित्त गुणधारण-भगवन् ! मेरे समस्त संदेह अब नष्ट हो गये हैं। आपके वचनों को मैंने संक्षेप में इस प्रकार समझा है-जब मैं अज्ञान से निर्वत्ति नगर स्थित परमेश्वर सुस्थित महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करता हूँ और अपनी चित्तवृत्ति को भावान्धकार से मलिन करता हूँ तथा महामोहादि की सेना का पोषण करता हूँ तब मेरे इस व्यवहार को देखकर कर्मपरिणाम, कालपरिणति, स्वभाव * पृष्ठ ७१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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