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________________ प्रस्ताव ८ : कन्दमुनि : राज्य एवं गृहिधर्म-प्राप्ति ३३७ कन्दमुनि समागम एक दिन मैं अपने मित्र और पत्नी के साथ आह्लादमन्दिर उद्यान में गया। वहाँ मैंने कन्द नामक मुनीश्वर के दर्शन किये। इन महान ओजस्वी यतीन्द्र को देखकर मैंने अत्यन्त विनयपूर्वक नम्र बनकर योग्य नमस्कार किया तथा धर्म सुनने और प्राप्त करने की बुद्धि से शुद्ध जमीन देखकर उनके सामने बैठा । कन्द मुनि ने हृदयाह्लादकारिणी कर्णप्रिय मधुर धर्मदेशना दी। मैं उनकी देशना को अत्यन्त आदरपूर्वक सुन रहा था तभी, हे भद्रे ! मेरे अन्तरंग में पूर्व परिचित दो सुबन्धु आविर्भूत हुए, जिन्हें मैंने तुरन्त पहचान लिया । उनमें से एक तो ये महात्मा सदागम थे और दूसरा मेरा परम मित्र सम्यग्दर्शन था। हे सुलोचने ! गुरु महाराज के उपदेश से प्रबोधित होकर मैंने इन दोनों को अपने हितेच्छु के रूप में पहचाना और गुरुवचन से जागृत होकर उन्हें उसी भाव से स्वीकार किया। [१५६-१६४] पहले मैं जब विबुधालय में था तब वेदनीय राजा के मुख्य भाई सातावेदनीय नामक राजा से मेरा घनिष्ठ परिचय हुआ था। वह मुझ पर बहुत मैत्रीभाव/स्नेह रखता था, मेरा पक्ष लेता था और मुझ पर अत्यधिक आसक्त रहता था। विबुधालय की मेरी मित्रता को याद कर वह मेरे साथ ही सप्रमोद नगर आया था। पर, अभी तक उसने छिपकर ही मुझे सुख का आस्वादन करवाया था । मेरे पुराने मित्रों सदागम और सम्यग्दर्शन का पुन: परिचय होते ही यह भी मुझ से स्पष्टतः प्रत्यक्षरूप से मिल गया और मेरी सुख-प्राप्ति की योग्यता को इसने गुरु महाराज के समक्ष ही अनन्त गरणी बढा दी। इसके पश्चात सातावेदनीय राजा की मित्रता और सहायता से मुझे स्त्री और रत्न-प्राप्ति से उत्पन्न होने वाले सुख में अनन्तगुणी वृद्धि हो गई ।* जिस प्रकार मैंने सम्यग्दर्शन और सदागम को स्वीकार किया था वैसे ही उस समय मेरी पत्नी मदनमंजरी और मित्र कुलन्धर ने भी गुरु महाराज के समक्ष ही महात्मा सदागम और सेनापति सम्यग्दर्शन को अपने हितेच्छु के रूप में स्वीकार किया। ऐसे सुन्दर परिवर्तन से अत्यधिक प्रसन्न होकर पवित्र मुनिराज ने फिर से अधिक विशुद्ध धर्मोपदेश दिया। [१६५-१७०] चारित्रधर्मराज और सदबोध की विचारणा ___इधर चित्तवृत्ति अटवी में महामोह आदि राजा जो घेरा डालकर पड़े थे वे कुछ शक्तिहीन हुए, कुछ नरम हुए, काँपने लगे और भय से घेराव छोड़कर दूर-दूर जा बैठे । बहिन अगहीतसंकेता ! उस समय चारित्रधर्मराज के मन में कुछ संतोष हुआ और उसे प्रकट करते हुए उन्होंने अपने मंत्री सद्बोध से कहा-मन्त्रिवर ! अभी अच्छा अवसर आ गया लगता है, बहुत सी अनुकूलताएँ बढ़ रही हैं, अतः अभी तुम पुत्री विद्या को लेकर संसारी जीव के पास चले जाओ। अभी अधिक लाभ * पृष्ठ ७०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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