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________________ ३३६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कनकोदर के स्वप्न की जो बात कही थी उसमें दो पुरुषों और दो स्त्रियों ने कहा था कि उन्होंने मदनमंजरी के लिये पति हूँढ़ रखा है। इस स्वप्न की बात मुझे पूर्णतः याद थी। मेरे मन में शंका हुई कि श्वसुर के स्वप्न में चार व्यक्ति थे और कुलन्धर के स्वप्न में पाँच, तो कौन से ऐसे देव हैं जिन्हें मेरी अनुकूलता के लिये इतनी चिन्ता रहती है, फिर इस चिन्ता का कारण क्या है ? इन स्वप्नों के पीछे कोई गहन कारण होना चाहिये, जो इस समय तो समझ में नहीं आता, पर जब कभी किसी अतीन्द्रिय विषय के ज्ञाता मुनि महाराज का संयोग मिलेगा * तब ही उनसे पूछकर स्पष्ट निर्णय कर सकूँगा। इसके अतिरिक्त इसका संतोषजनक निर्णय असंभव है। मेरे मन में स्वप्न के अर्थ के प्रति सन्देह होने पर भी पिताजी एवं विद्वानों के अविनय से बचने के लिये मैंने प्रकट रूप से स्वप्नार्थ में कोई दोष नहीं निकाला और उनके निर्णय को मान्य किया। [१४६-१५१] जो विद्याधर राजा कनकोदर से लड़ने आये थे और जो आखिर में मेरे सगे हो गये थे, उन्हें राजा कनकोदर के साथ कुछ दिन हमारे राज-मन्दिर में ठहराया था। उनका योग्य आदर सत्कार किया गया। आनन्दामृत में स्नान कर, मेरे प्रति सेवकत्व स्वीकार कर कुछ दिनों बाद वे सब अपने-अपने स्थानों को लौट गये। [१५२-१५३] मर्त्यलोक में देवसुखानुभव __ मदनमंजरी के साथ रतिसुखसागर में डूबकर अनेक प्रकार की लीलाओं में मेरे दिन व्यतीत होने लगे । देवलोक में देवता जैसे सुखों का अनुभव करते हैं वैसे सुखों का मैंने मर्त्यलोक में अनुभव किया। दिन-प्रतिदिन प्रेमरस का अधिकाधिक पान करने लगा । आनन्दरसामृत प्रतिदिन बढ़ता ही गया और सद्भावपूर्वक उसका मिलाप अधिकाधिक सुख देने लगा। हमारा प्रेमबन्ध अधिक सुदृढ़ होता गया। हमारे आह्लाद में निरन्तर प्रसार होता गया और हमारी प्रेम गोष्ठी विशेष दढ़ होती गई। राज्यकार्य की चिन्ता पिताजी करते थे। अनेक राजा मुझे नमस्कार और प्रणाम किया करते थे। हे विशालाक्षि ! ऐसे सुन्दर संयोगों में मुझे तो चिन्ता की गन्ध भी नहीं आती थी। मेरे दिन सुख में व्यतीत हो रहे थे। विद्याधर अनेक सुगन्धित फूलों के पुष्पहार ले आते थे, सुन्दर आभूषण आदि सर्व पदार्थ ले पाते थे। इस प्रकार हमारी सभी इच्छाओं की तृप्ति होने से सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति हो रही थी। यद्यपि मेरा शरीर इस सुखसागर में अवगाहन करता था तथापि मेरी आत्मा इसमें तनिक भी लुब्ध/आसक्त नहीं होती थी। हे चार्वङ्गि! इस प्रकार अपनी सुन्दर पत्नी मदनमंजरी और सन्मित्र कुलन्धर के साथ आनन्द करते हुए मेरा समय व्यतीत हो रहा था। [१५४-१५८] * पृष्ठ ७०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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