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________________ प्रस्ताव ८ : मदनमंजरी ३२५ मदनमंजरी अपनी सहेली लवलिका को साथ लेकर वर ढूढ़ने और समस्त भूमण्डल का अवलोकन करने निकल पड़ी। उसे गये कुछ दिन व्यतीत हए । हमारा पुत्री पर अत्यधिक प्रेम था, अतः हम उसकी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे । हमें एक-एक दिन व्यतीत करना अत्यन्त दूभर लग रहा था। लवलिका का संदेश कुछ दिनों पश्चात् एक दिन अचानक यह लवलिका उतरा हुआ चेहरा लेकर हमारे पास आई। एक तो यह अकेली थी और चेहरा भी उतरा हना था, अतः झट से हमारा हृदय बैठ गया और हमें संदेह हुआ कि मदनमंदरी का क्या हमा ? "स्नेह सर्वदा शंका कराता है, स्नेही का अहित पहले दिखाई देता है।" हमारी भी यही गति हुई। लवलिका ने हमें प्रणाम किया तब हमने पूछालवलिका ! राजकुमारी का कुशल मंगल तो है ? लवलिका-हाँ, माताजी ! मदनमंजरी कुशलपूर्वक है । मैंने पूछा-तब मदनमंजरी अभी कहाँ है ? लवलिका- माताजी ! सुनें, हम यहाँ से निकल कर अनेक ग्रामों, नगरों में घूमी, अनेक घटनाओं से पूर्ण सारी पृथ्वी का अवलोकन किया, कई स्थानों पर गयीं और कई लोगों से परिचय हुआ। पृथ्वी पर कैसी-कैसी अद्भुत घटनायें घटती हैं और कैसे भिन्न-भिन्न स्वभाव के व्यक्ति रहते हैं, इसका अनुभव किया । घूमते-घूमते हम सप्रमोद नगर पहुँची। इस नगर के बाहर स्थित आह्लादमन्दिर उद्यान है। बाहर से यह उद्यान बहुत सुन्दर लग रहा था, अतः इसे अच्छी तरह देखने का हमें कौतूहल हुआ । हम थोड़ी देर खड़ी रहकर देखने लगीं। वहाँ हमने ऊपर से ही देवता जैसी अत्यन्त सुन्दर प्राकृति के धारक दो आकर्षक राजकुमारों को देखा। उन दो में से एक को देखते ही मेरी प्यारी सहेली कामदेव के बाण से घायल हो गई। मदन-ज्वर से पीड़ित मेरी सखी मेरे साथ बगीचे में उतरी।* हम दोनों उनको दिखाई दे सकें ऐसे आम्रवन में एक आम्रवृक्ष के निकट रुकीं। मेरी सखी तो उनमें से एक राजकुमार को अपलक/एकटक देख रही थी। मुझे ऐसा लगा कि उस राज कुमार की भी दष्टि मेरी सखी पर पड़ गई है। ___ मेरी सखी उस समय ऐसे अपूर्व रस का अनुभव करने लगी कि मानो किसी ने उसे सुखसागर में तरबतर कर दिया हो, मानो उसके पूरे शरीर पर किसी ने अमृत की वृष्टि की हो । माताजी ! वर्षा ऋतु में घन-गर्जन को सुनकर जैसे मयूरी हर्षित हो जाती है वैसा ही रोमांच उसके सारे शरीर में हुआ। कदम्ब पुष्प की तरह उसका मुख विलास से मधुर हो गया और उसका सम्पूर्ण शरीर रस से भीगा हुआ दिखाई दिया। मानो रस-वृष्टि से नृत्य कर रही हो, बार-बार लज्जित हो • पृष्ठ ६६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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