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________________ ३२६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा रही हो । मानो विशाल आँखों से हंस रही हो । इस प्रकार वह एकचित्त कुमार पर दृष्टि जमाये रही। [६४-६७] मेरी सहेली को एकचित्त रस में डुबकियाँ लगाते देख मैं भी बहुत हर्षित हई। मैंने सोचा कि, अहो ! मेरी सखी सचमुच अत्यन्त ही चतुर है और इसकी अभिरुचि भी कितनी विशिष्ट है। मुझे लगता है कि राजकुमारी उस कमनीय युवक पर आकर्षित हुई है । अहा ! कैसा सुन्दर उसका स्वरूप! कैसी लावण्यता । अहा सचमुच इन दोनों का सम्बन्ध हो जाय तो वह कामदेव और रति के सम्बन्ध जैसा ही होगा ! अहा ! यह युगल जोड़ी तो सचमूच विधाता ने ही बनाई है। मुझे लगता है कि आन्तरिक प्रेम युक्त इस मिलन से हमारी इच्छा पूर्ण हुई है। [६८-७१] मैं इस प्रकार सोच ही रही थी कि वह युवक किसी कारण से तत्काल अपने मित्र के साथ उठा और वहाँ से चल पड़ा। उनके जाते ही मेरी सहेली की आँखें तरल हो गईं, मानो उसका धन-भण्डार नष्ट हो गया हो इस प्रकार अत्यन्त विह्वल हो गई। [७२-७३] तब मैंने उससे कहा-सखि ! यदि तुझे यह तरुण पसंद आया हो तो चलो हम आपके माता-पिता के पास चलें। मुझे विश्वास है कि यह अवश्य ही इस नगर के राजा मधुवारण का पुत्र होगा । अन्य ऐसा आकर्षक रूपवान कौन हो सकता है ? अतः पिताजी की आज्ञा लेकर उसका वरण किया जाय । अब विलम्ब करने की क्या आवश्यकता है ? मदनमंजरी-सखी लवलिका ! मुझे तो वह पसंद आया है, पर मेरे मन में एक शंका है जिससे दुःख होता है । मुझे लगता है कि उसने मुझे पसंद नहीं किया है, अन्यथा वह इतनी शीघ्रता से उठकर क्यों चला जाता ? लवलिका-नहीं सखि ! ऐसा मत कह । तू जरा सोच, क्या उसकी दृष्टि तेरी तरफ नहीं थी? क्या तेरी तरफ देखते हुए उसकी आँखों में तुझे संतोष दिखाई नहीं दिया था ? फिर तू ऐसी बात क्यों करती है ? मैं तो यहाँ तक कह सकती हूँ कि वसन्त ऋतु में जैसे भ्रमरों को रसाल आम्रमजरी पर रुचि होती है, उससे भी अधिक वास्तविक रुचि उसको तुझ पर हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं। हे सुमुखि ! तू अपने मन से शंका को निकाल दे । उसे तुझ पर प्रेम हुआ है और वह चतुराई से यहाँ से दूर चला गया है । अतः चलो हम माता-पिता के पास चलें और उन्हें सारा वृत्तान्त बतायें। [७४-७६] ___ लवलिका ने आगे बताया कि उसके उपर्युक्त कथन से मदनमंजरी को कुछ सांत्वना मिली, कुछ स्वस्थ हुई,* पर उसने यहाँ लौटने से इन्कार किया। वह बोली-सखि ! अभी मुझ में यहाँ से चलने की शक्ति नहीं है । मेरा शरीर अस्वस्थ - पृष्ठ ६६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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