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________________ ३२४ उपमिति भव प्रपंच कथा उन्होंने कहा - 'सुनो, शोक छोड़ो। मदनमंजरी के लिये पहले से ही वर अब मदनमंजरी के लिये दूसरे पति को ही उसे विद्याधर राजाओं का द्वेषी नहीं होने देंगे ।' इतना कहकर स्वप्न ढूँढ़ लिया गया है, वही उसका पति होगा । ढूँढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । हमने बनाया है । हम उसका विवाह अन्य के साथ के चारों व्यक्ति श्रदृश्य हो गये । इसी समय प्रातःकालीन नौबत बज उठी । राजा भी उठे और मन में हर्षपूर्वक स्वप्न के अर्थ का विचार करने लगे । * ठीक इसी वक्त समय-सूचक कर्मचारी ने कथन किया हे लोगों ! यह उदय होता सूर्य सब को शिक्षा दे रहा है कि आप कोई न संताप करें, न हर्षित हों और न घबरायें ही । जैसे मैं अनादि काल से नित्य उदय होता हूँ, तेजस्वी होता हूँ और अस्त हो जाता हूँ वैसे ही प्रत्येक भव में तुम्हारा भी उदय, प्रकर्ष और अस्त निश्चित है । [ ६२-६३] समयसूचक के कथन पर राजा ने विचार किया कि, अरे ! स्वप्न का जो अर्थ उसने सोचा था उसका यह कालनिवेदक समर्थन ही कर रहा है । जैसे स्वप्न में देवरूपी चार व्यक्तियों ने उसको कहा कि मदनमंजरी का पति उन्होंने पहले से ही देख रखा है, जैसे सूर्य प्रतिदिन उदय, मध्य और अस्त होता है, ठीक वैसे ही मनुष्य भी प्रत्येक जन्म में सुख-दुःख, लाभ-हानि और गमन - श्रागमन प्राप्त करता है । यह सब प्रत्येक प्राणी के लिये पहले ही से निश्चित होता है, अतः इस विषय में किसी को शोक नहीं करना चाहिये । मदनमंजरी के पति के विषय में भी जब यह पहले से ही निश्चित है तब चिन्ता करने से क्या लाभ ? ऐसा सोचते हुए राजा निश्चिन्त / आश्वस्त हुए और उनकी व्याकुलता दूर हुई | वर-शोधन के लिये पर्यटन इधर लवलिका मदनमंजरी के पास गयी और उससे सीधा प्रश्न किया कि, इस विषय में अब क्या करना चाहिये ? उत्तर में मदनमंजरी ने कहा- यदि मुझे माता-पिता आज्ञा दें तो मैं स्वयं सारी पृथ्वी का भ्रमण कर यथेप्सित योग्य वर को ढूँढ़ कर उसके साथ विवाह करूँ । लवलिका ने मदनमंजरी के प्रस्ताव को मुझे बताया और मैंने महाराज से बात की। उन्होंने सोचा कि 'पुत्री ने योग्य प्रस्ताव ही रखा है । स्वप्न के चार व्यक्तियों द्वारा कहे गये इसके पूर्व निर्णीत पति को ढूँढ़ने का / प्राप्त करने का सम्भवत: यही उपाय उपयुक्त है ।' इस विचार के फलस्वरूप उन्होंने मदनमंजरी को पृथ्वीभ्रमण / देशाटन की आज्ञा दे दी । उनकी सम्मति में मेरी सम्मति तो साथ ही थी । * पृष्ठ ६६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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