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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
विशद
बहिन अगहीतसंकेता ! इसके पश्चात् भवितव्यता मुझे भद्रिलपुर नगर के राजा स्फटिकराज की पत्नी विमला रानी की कूख में ले गई । वहाँ मैं उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुना और मेरा नाम विशद रखा गया। राजवैभव के आनन्द का उपभोग करते हुए, क्रमशः बढ़ते हुए मैं युवावस्था को प्राप्त हुआ। एक समय मेरा सुप्रबुद्ध मुनि से मिलन हुआ। इनकी सुसंगति से मुझे जैन-शासन का बोध हुआ। हे भद्रे ! उस समय सेनापति सम्यग्दर्शन, महात्मा सदागम और राजकुमार गहिधर्म से मेरी पुनः मित्रता हुई । वहाँ मैंने व्रतों का पालन किया और मेरी आत्मा तात्त्विक श्रद्धा से पवित्र हुई । इस स्थिति में मैं वहाँ लम्बे समय तक रहा । मात्र सूक्ष्म पदार्थों का पृथक्करण करने योग्य गहन ज्ञान मुझे नहीं हुआ था, पर मैं धीरे-धीरे प्रगति कर रहा था । परिणाम स्वरूप मेरा अन्तरंग मित्र पुण्योदय फिर से प्रकट हुआ और मेरे साथ अधिकाधिक प्रीति बढ़ाता गया।
गमनागमन
पुण्योदय के प्रताप से मैं तीसरे देवलोक में गया जो विबुधालय का एक भाग है । वहाँ मैंने शब्दादि पाँचों इन्द्रियों के सुन्दर/प्रशस्त भोगों को खूब भोगा। देवलोक में तो इन्द्रिय भोगों की विपुलता रहती ही है । सात सागरोपम काल तक मैं देवलोक में रहा, फिर मानवावास में पाया, वहाँ से फिर विबुधालय में गया । हे भद्रे ! यों अनेक बार मेरा आवागमन होता रहा । संक्षेप में, मेरे तीनों मित्रों के साथ मैंने बारह ही देवलोकों को कई बार देखा । बीच-बीच में कभी-कभी मेरे मित्र मुझे छोड़ भी जाते थे, पर क्रमशः इन तीनों मित्रों के साथ मेरे सम्बन्ध धीरे-धीरे दृढ़ होते जा रहे थे। इसके पश्चात् मेरी पत्नी भवितव्यता ने बारहवें देवलोक से मुझे वापस मानवावास में भेजा, उसका वर्णन अब आगे करता हूँ।
[१०२५-१०३३]
परम्परोपकही जीवानाम
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