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________________ प्रस्ताव ७ : उपसंहार ३०६ उपसंहार विमलमपि गुरूणां भाषितं भूरिभव्याः, प्रबलकलिलहेतुर्यो महामोहराजः । स्थगयति गुरुवीर्योऽनन्तसंसारकारी, मनुजभवमवाप्तास्तस्य मा भूत वश्याः ।।१०३४।। अनेक प्रकार के प्रबल षड्यन्त्र खड़े करने वाला, संसार को अनन्त काल तक बढ़ाने वाला और महान् शक्तिशाली यह महामोह महाराजा है । गुरु महाराज के विशुद्ध एवं पवित्र उपदेश को, बारम्बार विवेचन पूर्वक स्पष्ट की हुई बात को भी जो दबा देता है, निर्जीव कर देता है, दूर कर देता है ऐसा प्रबल यह महामोह राजा है । अतः हे भव्य प्राणियों ! मनुष्य जन्म प्राप्त कर कभी इस मोहराजा के वशीभूत न बनें । [१०३४ सकलदोषभवार्णवकाररणं, त्यजत लोभसखं च परिग्रहम् । इह परत्र च दुःखभराकरे, सजत मा बत कर्णसुखे ध्वनौ ॥१०३५॥ परिग्रह लोभ का मित्र है, सभी दोषों का कारण है और संसार-समुद्र में डुबाने वाला है, अतः इस परिग्रह का त्याग करें। इस भव और परभव में दु:ख के भार से प्राप्लावित ध्वनि-सूख (श्रवणेन्द्रिय के माने हुए सुख मधुर-ध्वनि) में आसक्ति न रखें। [१०३५] एतन्निवेदितमशेषवचोभिरत्र, प्रस्तावने तदिदमात्मधिया विचिन्त्य । सत्यं हितं च यदि वो रुचितं कथञ्चि त्तर्णं तदस्य करणे घटनां कुरुध्वम् ।।१०३६॥ अनेक घटनाओं से इस खण्ड (प्रस्ताव) में उपर्युक्त बात को स्पष्ट किया गया है। प्रात्मदृष्टि से आप लोग इस विषय में विचार करें और यदि आपको इसमें से कोई भी बात सत्य एवं हितकारी लगती हो और उसके प्रति आप में रुचि उत्पन्न हुई हो तो ऐसे हितकारी कथन को आप शीघ्र अपने जीवन में सक्रिय आचरण रूप से उतारने का प्रयत्न करें। [१०३६] उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का महामोह, परिग्रह, श्रवणेन्द्रिय के फल का वर्णन करने वाला सातवां प्रस्ताव समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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