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प्रस्ताव ७ : प्रगति के मार्ग पर
मैं ऐसा समझती हूँ कि संसारी जीव को लगे समस्त पापों में से महामोह और परिग्रह प्रति भयंकर हैं । इसका कारण यह है कि जब संसारी जीव को सम्यग्दर्शन का परिचय नहीं हुआ था और वह किसी भी प्रकार के गुणों से रहित था तब क्रोधादि पापों ने उसे अनर्थ - परम्परा में झोंका, उसे नचाया, इसमें तो आश्चर्य ही क्या ? किन्तु सम्यग्दर्शन का परिचय होने और गुरण प्राप्त करने के पश्चात् भी महामोह और परिग्रह ने इसे दीर्घकाल तक संसार के सभी स्थानों में भटकाया, इसीलिये ये दोनों प्रतिप्रबल अनर्थकारी हैं ।
जहाँ-जहाँ महामोह और परिग्रह होते हैं, वहाँ-वहाँ क्रोधादि तो होते ही हैं, क्योंकि इस समस्त समुदाय का नायक महामोह ही है । परिग्रह भी इस सब का आश्रय स्थान है, क्योंकि यह लोभ का मित्र है और लोभ महामोह की सेना में मुख्य अधिकारी है । अतः संसारी जीव के गुणों के घात के लिए ये दोनों मूलतः नायक हों तो इसमें भी क्या आश्चर्य ? वैसे क्रोधादि भी प्राणी के सद्गुणों का नाश करने में समर्थ हैं, किन्तु ये दोनों उच्चस्तर पर पहुंचे हुए प्राणी को भी नीचे गिराने में समक्ष है, इसीलिये ये प्रति दारुण कहे जाते हैं । महामोह के बिना क्रोधादि तो हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे तो बेचारे पैदल सैनिकों जैसे हैं । इन्हें प्राज्ञा देने वाले सेनापति तो ये दोनों ही हैं । सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक प्राणियों के लिये विशेष रूप से अनुक्रम से इनके दोषों का यहाँ दिग्दर्शन कराया गया है । संसारी जीव के समस्त अनर्थों के जनक ये दोनों ही हैं । गुरु महाराज इस वास्तविकता को नित्य ही अपने उपदेश द्वारा लोगों को बताते रहते हैं, चेतावनी देते रहते हैं, फिर भी लोग इन दोनों पापियों का त्याग नहीं करते, तब क्या किया जाय ? कोविदाचार्य ने श्र ुति को दुष्टा कहा था, पर मूर्ख मनुष्य बार-बार उसी में आसक्त होते हैं, उसके हाथ में फंसकर उसके खिलौने बन जाते हैं । [ १००५ - १०२०]
प्रज्ञाविशाला को गाढ चिन्तन में संलग्न देखकर भव्यपुरुष ने माताजी ! आप क्या सोच रही हैं ?
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उत्तर में प्रज्ञाविशाला ने कहा-वत्स ! पहले तू निराकुल होकर संसारी जीव की पूरी आत्मकथा सुनले, शीघ्रता न कर । मेरे मन में जो विचार उठे हैं वे मैं तुम्हें बाद में सुना दूंगी । इसकी आत्मकथा अब लगभग समाप्त होने आ रही है, अतः तू पहले इसे ध्यान पूर्वक सुनले ।
* पृष्ठ ६८६
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पूछा- कहिये
यह सुनकर राजकुमार भव्यपुरुष आदर सहित चुप हो गया । संसारी जीव * पुनः अपनी आत्मकथा का शेष भाग सुनाते हुए कहने लगा ।
[१०२१-१०२४]
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