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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा विभूषण बहिन अगृहीतसंकेता ! अन्यदा भवितव्यता ने मुझे नई गोली देकर मानवावास के मध्यवर्ती सुन्दर सोपारक नगर के व्यापारी शालिभद्र की पत्नी कनकप्रभा की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न किया । यहाँ मेरा नाम विभूषण रखा गया। महापुरुषों की निन्दा : आशातना ___ एक समय मैं शुभकानन उद्यान में गया। वहाँ मुझे सुधाभूत आचार्य के दर्शन हुए। मैंने उनका उपदेश सुना। उसी समय मेरी सेनापति सम्यग्दर्शन और इन महात्मा सदागम से भेंट हुई। उपदेश सुनकर मुझे तत्त्व पर रुचि/श्रद्धा हुई, पर मन में विरति ( त्याग ) भाव उत्पन्न नहीं हुआ । हे निष्पापे ! गुरु के आग्रह से प्रांतरिक सच्ची इच्छा के बिना मैं साधु भी बन गया । मैंने साधु का वेष धारण किया और साधुओं के बीच रहा भी, पर कर्म-दोष से मैं विभाव (विपरीत) मार्ग पर चला गया और अपने वास्तविक कर्तव्य को भूल गया । ऐसे अवसर पर महामोहादि पुनः प्रबल हो गये और सम्यग्दर्शन तथा सदागम भावतः मेरे से दूर चले गये । महामोह के वशीभूत में परनिन्दा करने लगा, सकारण या अकारण दूसरों पर आक्षेप करने लगा। मैंने तपस्वियों की निन्दा की, आदर्श चरित्र वाले महापुरुषों की निन्दा की, सत्क्रिया में रुचि रखने वाले प्राणियों की टीका-टिप्पणी की। ऐसे उच्चस्तरीय पुरुषों की निन्दा करते हुए मेरे मन में किंचित् भी ग्लानि नहीं हुई । बात यहाँ तक पहुँची कि संघ, श्रु तज्ञान, गणधरों और स्वयं तीर्थंकरों की निन्दा और पाशातना करने से भी मैं नहीं चूका । गणधर और तीर्थकर भी अमुक विषय को बराबर नहीं समझ सके, ऐसे आक्षेप मैंने किये । यों साधु का वेष धारण करके भी मैं पूर्णरूपेण पापात्मा, गुणों का शत्रु और महामोहाभिभूत भयंकर मिथ्याष्टिवान बन गया। दुःख-समुद्र में पतन हे भद्रे ! ऐसी पाप चेष्टाओं के परिणाम स्वरूप में अति कठिन दुर्भेद्य कर्मसमूह से घिर गया । परिणाम स्वरूप मेरी पत्नी भवितव्यता ने मुझे फिर से अनन्त काल तक दु:खसमुद्र में डुबा कर लगभग सभी स्थानों पर भटकाया। इस संसार में रही हुई समस्त द्रव्यराशि को मैंने अर्धपुद्गल-परावर्तन से कुछ कम समय में भोग लिया और चारों तरफ खूब भटका। हे पद्मपत्राक्षि ! इस संसार-चक्र के भ्रमण में एक भी विपत्ति शेष न रही जो मुझ पर न पड़ी हो, अर्थात् एक भी दुःख या विडम्बना बाकी न रही। [६६१-१००४] प्रज्ञाविशाला की विचारणा संसारी जीव की उपयुक्त आत्मकथा सुनकर उसके भावार्थ को थोड़ा-थोड़ा समझने वाली अगृहीतसंकेता मन में चकित हुई । इस आत्मकथा को सुनकर प्रज्ञाविशाला के मन में* तीव्र संवेग उत्पन्न हुआ और वह सोचने लगी* पृष्ठ ६८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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