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________________ प्रस्ताव ७ : प्रगति के मार्ग पर ३०५ सन्तुष्ट होकर श्रावक बना था पर सर्वविरति (पूर्ण त्याग) की भावना नहीं हई थी। क्योंकि, कई बार नैसर्गिक सरलता के कारण और कई बार किसी को प्रसन्न रखने के लिए मैंने श्रद्धायुत होकर श्रावक वेष धारण किया था, किन्तु हृदय से सर्वविरति भाव कदापि धारण नहीं किया था । संख्यातीतवार जब-जब सम्यग्दर्शन से भेंट होती थी तब-तब मेरा सदागम से अवश्य मिलाप होता था और उसके मूल में सामान्य रूप से गहिधर्म अवश्य रहता था। कई बार ऐसा भी बना कि गृहस्थ धर्म के साथ मैंने सम्यग्दर्शन को नहीं भी देखा। सामान्यतः सम्यग्दर्शन के साथ सामान्य गृहस्थधर्म और सदागम को मैंने असंख्य बार देखा। जब-जब मैंने इन तीनों को देखा तब-तब मुझे सुख प्राप्त झा, पर बीच-बीच में कई बार मैंने इन्हें छोड़ भी दिया। अकेले सदागम को तो मैंने अनन्तबार देखा, पर इसके बिना सम्यग्दर्शन कभी दिखाई नहीं दिया। [९७१-६७६] हे भद्रे ! जब-जब सम्यग्दर्शन मेरे पास होता तब-तब पुण्योदय मेरा मित्र बना रहता और मेरे अनुकूल रहता । मानवावास या विबुधालय में मुझे जो यथेष्ट भोग, संपत्ति और विलास के सुख-साधन प्राप्त होते थे वे सब पुण्योदय के ही प्रताप से प्राप्त होते थे। हे भद्रे ! सम्यग्दर्शन की उपस्थिति से अन्य लाभ यह होता था कि मेरी कर्म स्थिति लध्वी (संक्षिप्त) होती जाती, भावशत्रु भयभीत रहते और महामोहादि चुप पड़े रहते । हे सुमुखि ! जब कभी मेरे भावशत्रु प्रबल हो जाते तब मेरा पुण्योदय मित्र मुझ से दूर हो जाता जिससे मुझे बहुत त्रास होता। पुण्योदय के दूर होते ही मेरे समक्ष दु:ख के पहाड़ खड़े हो जाते । इस सब के फलस्वरूप ही भवितव्यता मुझे अनन्त काल से भटका रही थी। पुण्योदय के अभाव में कर्मस्थिति फिर लम्बी हो जाती और मन एकदम अधम तथा तत्त्व-श्रद्धा-रहित हो जाता। ऐसे समय मोहादि महाशत्र प्रबल हो जाते और मुझ पर अपना प्रभुत्व जमाते तथा सम्यग्दर्शन और सदागम मुझ से दूर चले जाते । ऐसी घटना अनेक बार घटी। [९८०-६८६] एक विशेष बात तुझे और बतलादू कि मिथ्यादर्शन द्वारा जब सेनापति सम्यग्दर्शन पराभूत होता तब ज्ञानसंवरण * सदागम पर विजय प्राप्त कर उसे भी दूर कर देता । कभी सम्यग्दर्शन और सदागम भी विजय प्राप्त कर मिथ्यादर्शन और ज्ञानसंवरण को दूर भगा देते। हे भद्रे ! इस प्रकार दोनों पक्षों की जय-पराजय चलती ही रहती। देश, काल, बल और परिस्थिति के अनुसार जब जिसकी प्रबलता होती तब उसकी विजय और विपक्ष की पराजय होती। इस प्रसंग में मुख्य बात यह थी कि दोनों पक्षों में से जिस पक्ष के प्रति मैं अपना प्रेम प्रदर्शित करता प्रायः उसकी विजय होती और जिसके विरुद्ध रहता उसकी पराजय होती। दोनों पक्षों की हार-जीत अनन्त काल तक होती रही। [९८७-६६०] * पृष्ठ ६८४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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