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१७. प्रगति के मार्ग पर
हे भद्र े ! मानवावास के जनमंदिर नगर में ग्रानन्द गृहस्थ अपनी पत्नी नन्दिनी के साथ रहता था । भवितव्यता द्वारा दी गई गोली के प्रभाव से मैंने नन्दिनी की कुक्षि में प्रवेश किया और उसके पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ मेरा नाम विरोचन रखा गया । क्रमशः बढते हुए मैं युवावस्था को प्राप्त हुआ ।
धर्मघोष मुनीन्द्र की धर्मदेशना
एक समय मैं नगर के बाहर चितनन्दन उद्यान में घूमने गया । वहाँ मैंने धर्मघोष प्राचार्य को देखा । इस समय मेरी कर्मस्थिति संक्षिप्त हो गई थी और महामोहादि भावशत्रु निर्बल हो गये थे । अतः मैंने महाभाग्यवान प्राचार्य के चरण छूए और निर्जीव स्वच्छ भूमि देखकर बैठ गया । आचार्य के दर्शन से मेरे मन में भद्र भाव उत्पन्न हुए और मैं धर्म-सन्मुख हुआ । मेरे हृदय के भावों को ज्ञान से जान कर प्राचार्यश्री ने कानों को पवित्र करने वाले अमृत के समान आनन्ददायक मधुर शब्दों से उपदेश देना प्रारम्भ किया :
संसार में मनुष्य जन्म प्राप्त करना अति कठिन है, उसमें भी जैन धर्म की प्राप्ति तो और भी कठिन है । * जिस बुद्धिमान पुरुष को इनकी प्राप्ति हो, उसे तो इनके द्वारा परमपद की प्राप्ति करनी ही चाहिये । ऐसा न करने से क्या होगा ? यह भी सुनलो । इस भयंकर संसार रूपी अन्तरहित मार्ग पर उसे यात्रा के लिये आवश्यक सामग्री एवं पाथेय साथ में लिये बिना ही चलने से मार्ग में अतुलनीय दुःख परम्परा का भाजन बनना पड़ेगा । साथ ही प्रारणी को यह भी समझना चाहिये कि कुशल कर्म ही संसार-समुद्र को पार करने के मुख्य साधन है, अतः उसे कर्मयोगी की तरह अच्छे कार्य ही करने चाहिये । ऐसे अमूल्य मनुष्य जन्म को व्यर्थ नहीं खोना चाहिये । [६२१-६२८ ]
सन्मार्ग-दर्शन
उस समय धर्मघोष आचार्य के पास महात्मा सदागम भी पुनः दृष्टिगोचर हुए । मुनीन्द्र के वचनों को अंगीकार करने की प्राकांक्षा जागृत हुई और मैंने श्राचार्यश्री से पूछा – भगवन् ! मुझे क्या करना चाहिये, यह बताने की कृपा करें ।
श्राचार्य - भद्र ! सुनो, तुम्हें इस संसार नाटक का पूर्णरूपेरण अनादर करना चाहिये | जिनके रागद्वेष और मोह नष्ट हो गये हैं और जो अनन्त ज्ञान, दर्शन,
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