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________________ प्रस्ताव ७ : प्रगति के मार्ग पर वीर्य, और प्रानन्द से परिपूर्ण हैं ऐसे परमात्मा की आराधना करनी चाहिये । उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने वाले साधु भगवन्तों की भक्ति करनी चाहिये और जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष रूपी नौ तत्त्वों को सच्चे तत्त्वों के रूप में स्वीकार करना चाहिये । समस्त प्रकार से तीर्थंकर महाराज के वचनरूपी अमृत का पान करना चाहिये । उनके साथ एकात्मकता धारण करनी चाहिये अथवा उपकारी-उपकारक भाव को समझना चाहिये । आत्महितकारी अनुष्ठान करना चाहिये । पुण्यानुबन्धी पुण्य का संचय करना चाहिये। अन्तःकरण को निष्कलंक रखना चाहिये । कुविकल्परूपी वचन-जाल का त्याग करना चाहिये । भगवान् के वचन के सार को ढंढ निकालना चाहिये। राग-द्वेष आदि दोषों को पहचानना चाहिये । सद्गुरु के उपदेशरूपी औषधि को ग्रहण करना चाहिये । निरन्तर मन को सदाचरण में लगाना चाहिये । दुर्जनों द्वारा प्रणीत कुधर्म के वचनों का तिरस्कार करना चाहिये । महापुरुषों के मध्य में अपने को स्थापित करना चाहिये और निष्प्रकंपित स्थिर चित्त से रहना चाहिये । सम्यक्दर्शन का आगमन धर्मघोष आचार्य का उपर्युक्त मधुर व्याख्यान चल ही रहा था कि सेनापति सम्यग्दर्शन वहाँ आ पहँचा । अति कठिनता से भेदी जाने योग्य कर्मग्रन्थि को भेद कर मैंने उसे देखा। उसे देखते ही मुझे प्राचार्य के उपदेश के प्रति रुचि हुई और उनके कथन पर श्रद्धा पैदा हुई, जिससे मुझे लगा कि सेनापति मेरा वास्तविक हितकारी बन्धु है । मैंने आचार्यश्री से कहा - नाथ ! आपकी आज्ञानुसार कर्तव्य करने के लिये मैं तत्पर हूँ। फिर आचार्य को वन्दन कर मैं अपने घर गया। अब मैं सम्यग्दर्शन युक्त हुआ और मुझे तत्त्व पर श्रद्धा हुई, जिससे मेरी आत्मा पवित्र हो गई । किन्तु, अभी मेरी यह श्रद्धा विशिष्ट ज्ञान से रहित थी। हे सुमुखि ! 'जिनेन्द्र भगवान् ने जो कुछ कहा है वही निःशंक सत्य है' इस प्रकार की श्रद्धा से मैं उस समय प्रसन्न था । सदागम ने अपना विज्ञान मुझे थोड़ा-थोड़ा बतलाया था वही मैं जानता था, किन्तु वस्तु के सूक्ष्म भाव एवं गहन भावार्थ को अभी मैं नहीं समझता था। मेरे गुरु बहुत ही योग्य और उपदेश-कुशल थे, फिर भी वे मुझे सूक्ष्म ज्ञान नहीं दे सके; क्योंकि विशेष ज्ञान के लिये आवश्यक योग्यता अभी मुझे प्राप्त नहीं हुई थी । हे सुन्दरांगि ! श्रद्धा और * ज्ञान का वास्तविक कारण तो अपनी योग्यता ही है, गुरु तो सहकारी कारण निमित्त मात्र हैं। उदाहरण के तौर पर देख-घनवाहन के भव में अकलंक मुनि एवं कोविदाचार्य ने मुझे उपदेश देने का बहुत प्रयत्न किया था, पर मुझ पर कुछ भी असर नहीं हुआ था, मुझे श्रद्धा भी नहीं हुई थी। हे सुमुखि ! उसके पश्चात् भी मेरा अनन्त बार सदागम से सम्पर्क हुआ पर मैं श्रद्धाशून्य होने से उसकी बात को सत्य ही नहीं मानता था। प्राणो में * पृष्ठ ६८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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